tag:blogger.com,1999:blog-33290493895583924892024-02-07T01:39:00.880-08:00गंदा बच्चाDileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.comBlogger41125tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-73355617300183694932010-01-15T04:11:00.000-08:002010-01-15T04:22:07.493-08:00कार वाले हॉकर...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjI70zcTUSSJ_C9PjjR9cypTebD0odxlhvqxR3aSQP4NZO2LrMXM3ZcKp86JCPonJjSl69BH790VHuN7v4cp5H5VRQiZyEhPgG-Jb2w5IqM1ZtYRzAuC5FvGQHKrvIxqYgoVzxs_iyC3jFz/s1600-h/Kamal+ji+Nagpal.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 208px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjI70zcTUSSJ_C9PjjR9cypTebD0odxlhvqxR3aSQP4NZO2LrMXM3ZcKp86JCPonJjSl69BH790VHuN7v4cp5H5VRQiZyEhPgG-Jb2w5IqM1ZtYRzAuC5FvGQHKrvIxqYgoVzxs_iyC3jFz/s320/Kamal+ji+Nagpal.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5426940707849808034" /></a><br /><em>('प्रताप केसरी' के संस्थापक-संपादक स्व.कमल नागपाल जी की आज पुण्यतिथि है)</em><br />उन्हें गए कितने दिन हुए...एक और बरस बीत गया। एक से दो, दो से तीन, तीन से चार...इसी तरह बरस बीतते जाएंगे और हम हमेशा यही कहेंगे कि इतने साल हो गए उन्हें गुजरे, लेकिन यूं लगता है जैसे कल तक वे हमारे साथ थे। तारीखें बढ़ती रहेंगी पर दिन और रात तो वही रहेंगे। सभी के लिए नहीं तो कम-से-कम मुझ जैसों के लिए तो ऐसा होगा ही, जिन्हें लंबे समय तक उनके सान्नध्य का सौभाग्य मिला है। स्व. कमल नागपाल जी को श्रद्धांजलि के लिए कोई लेख या प्रशंसा-पत्र लिखना तो बेमानी ही होगा। उनके साथ बिताए लंबे समय की यादों ने मेरे मन की परतों के साथ जैसे एक किताब का रूप ले लिया है। उन्हीं परतों में से कुछ खोल रहा हूं।<br />'दीपू, जल्दी काम निपटा लो। तुम्हें मेरे साथ चलना है।' उनका ये मैसेज मिलते ही मेरी उंगलियां दोगुनी तेजी से की-बोर्ड पर चलने लगती थी। स्वभाव से थोड़ा घुमक्कड़ हूं, लेकिन इसके अलावा भी कारण बहुत-से थे। उनके साथ हर बार कुछ नया सीखने का मौका मिलना और पूरे रास्ते गजलों का आनंद आदि के बारे में सोचकर ही मैं एनर्जी से भर जाता था।<br />कार को साफ करने के बाद ऑफिस बॉय उसमें पानी की बोतल, टिफिन के साथ जरूरी सामान रखता, तब तक अंकल डायरी, पेन और दो-तीन लेटर पैड लेकर आ जाते। लेटर-पैड एक से ज्यादा इसलिए होते थे, क्योंकि एक-डेढ़ घंटे के सफर में न जाने कितनी खबरें उनके दिमाग में कैद हो जाती थीं। कार में रखे सामान पर नजर डालते हुए वे पूछते-'सब-कुछ आ गया?' ऑफिस बॉय हां में सिर हिलाता तो वे कहते-'सबसे जरूरी चीज नहीं आई। 'प्रताप केसरी' कहां है? टिफिन रह जाए, लेकिन अखबार नहीं रहने चाहिए।' <br />ऑफिस बॉय दौड़कर जाता और अखबार का बंडल कार की पिछली सीट पर रख देता। ऊपर वाले का नाम लेकर हम रवाना होते। श्रीगंगानगर क्रॉस होते ही वे कभी भी मुझसे पूछ लेते-'हम कहां पहुंचे हैं?' मैं हड़बड़ाया हुआ-सा इधर-उधर ताकने लगता। कार के स्टीरियो की आवाज कम करते हुए थोड़ा डांटकर वे कहते-'गजलों में इतने गुम मत हुआ करो कि कहीं और ध्यान ही ना रहे। पत्रकार की तरह दो आंखें अंदर और दो आंखें बाहर रखा करो...।'<br />वे कुछ और कहें, इससे पहले तीन-चार आदमी उनकी गाड़ी के पास आते। सभी को वे 'प्रताप केसरी' की एक-एक कॉपी देते। मैं बड़ी तल्लीनता से देखता। वे अपनी बात आगे बढ़ाते-'पत्रकार चार आंखें नहीं रखेगा तो अखबार किसी काम का नहीं रहेगा। इन गांव वालों के पास अखबार काफी देरी से पहुंचता है या फिर पहुंचता ही नहीं। कुछ गरीबी के कारण खरीद नहीं पाते। शुरुआत में एक-दो बार इनके लिए अखबार लाया तो ये हमेशा इंतजार करने लगे। प्रेस की गाड़ी देखते ही दुकानों-घरों से बाहर निकल गाड़ी के नजदीक आ जाते हैं।'<br />वे मुस्कुराकर बोले-'इनके प्यार ने संपादक के साथ मुझे हॉकर भी बना दिया।'<br />अचानक मेरे मुंह से निकल गया-'कार वाले हॉकर...।'<br />वे बोले-'कार तो बाद में आई। हॉकर तो मैं पहले-से हूं।'<br />हम दोनों जोर-से ठहाका लगाते हैं। बिलकुल ऐसे, जैसे दो हमउम्र दोस्त हों। इस हंसी और उनकी सादगी में तीस-पैंतीस साल का अंतर कहीं गुम हो जाता। उस ठहाके की आवाज आज भी मेरे भीतर कहीं गूंजती है।<br />...वी ऑलवेज मिस यूं अंकल।Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-31094916193045876802010-01-07T02:09:00.000-08:002010-01-07T04:08:47.327-08:00मैंने किसी का दिल दुखाया है...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh9khyphenhyphenITXgk6pAMr1_ZWjCzz0RIb_vb8wLfOZc1SQyHrSeArkIfCCUAJZwgOJmTrcziZN6hD3J1AvmC9XUnXZ2XJ6nsEW8NzcccD29oxpQC65l-_Y_scy-y_8SU_RIPFvhbQUMY6RlBf_K4/s1600-h/sad-boy11.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 234px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh9khyphenhyphenITXgk6pAMr1_ZWjCzz0RIb_vb8wLfOZc1SQyHrSeArkIfCCUAJZwgOJmTrcziZN6hD3J1AvmC9XUnXZ2XJ6nsEW8NzcccD29oxpQC65l-_Y_scy-y_8SU_RIPFvhbQUMY6RlBf_K4/s320/sad-boy11.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5423939511282979730" /></a><br />दो रातों से सोया नहीं हूं। मैंने किसी का दिल दुखा दिया है, क्योंकि वही दिल मुझे बेवकूफ बनाता है। मेरी आंखों में आंसू लाता है। एक बार नहीं, बार-बार। कितनी बार माफ करूं। हर बार यही सोचता हूं कि एक मौका और...पर इस बार नहीं...। भरोसा टूटता है फिर जुड़ता है पर इतनी दरारें अच्छी नहीं। कुछ इतना बुरा हो कि दिलों में नफरत पनप उठे, इससे तो अच्छा है कि दूरियां बन जाएं। उसी की दोस्त के ऑरकुट प्रोफाइल में पढ़ा कि किसी के लिए कितना ही कर लो, कम पड़ ही जाता है...। रात को घड़ी देखते, एफएम सुनते, आंखें नम...। खुद से बातें होती हैं कि दो दिन हो गए, अब मुझे मान जाना चाहिए पर अगले ही पल खयाल आता है कि ऐसे मानने से क्या होगा कि फिर दुखी होने के लिए खुद को पेश करना...<br />पागलों की तरह खुद से यूं ही बड़बड़ाता रहता हूं। आज जल्दी ऑफिस आना था। आते ही एक प्रेम कहानी टाइप करने को मिल गई। लेखक की सच्ची कहानी। मुझे लगता है कि हर कहानी सच्ची होती है, बस यूं ही लिखने वाले 'यह कहानी और इसके सभी पात्र काल्पनिक हैं' जैसी बातें लिख देते हैं।<br />इस कहानी की एक लाइन थी-'मैंने तीन दिन से कुछ नहीं खाया, फिर लोग रसोई क्यों बनाते हैं?'<br />बहुत दर्द है इस लाइन में पर इसे वही समझे, जिसके पास दिल हो। मैंने भी कहा, अब तक मैंने गर्म कपड़े नहीं पहने, फिर लोग क्यों गर्म कपड़े खरीदते हैं। ठंड दिनोंदिन बढ़ रही है। मुझे तो वैसे भी ठंड ज्यादा लगती है। पिछले साल तक ठंड में इनर के अलावा दो-दो जींस पहनने वाला इस बार सर्दी के कपड़े पैक कर चुका हूं। ऑफिस में किसी ने बोला-तुहें ठंड नहीं लगती? झूठी मुस्कान के साथ मैंने भी झूठ बोल दिया-सुबह इतने गर्म पानी से नहाता हूं कि वो गर्मी दिनभर ठंड का अहसास ही नहीं होने देती।<br />कैसे बताता उसे असली कारण। बताऊं भी क्यों, जब मम्मी को नहीं बताया। दो दिन पहले फोन पर उनसे बतियाते हुए रुलाई फूट पड़ी तो फोन काट दिया। स्विच ऑफ कर दिया। घंटे बाद ऑन किया तो पहला फोन घर से। मां है न, सब समझ जाती है। बोलीं-रोया क्यों, फिर कुछ हुआ क्या?<br />मैंने फिर झूठ बोला-नहीं, चार्जिंग खत्म हो गई थी। अब फोन रखो, मुझे नहाने जाना है। नहाकर निकला, तब तक कुछ कॉल्स मोबाइल पर मिस हो चुकी थी। उसकी नहीं, जिसके कारण रोया, सभी कॉल घर से थी। काश...उसकी होती। खुद को चपत लगाकर बोला-आय एम मजबूत मैन।<br />मजबूत मैन इसलिए, क्योंकि अंग्रेजी में हाथ तंग है। मजबूत का अंग्रेजी शब्द ध्यान नहीं आया। ठंडे मारबल के फर्श पर गीला तौलिया लपेटे पूजा करते हुए भगवान में ध्यान नहीं लग रहा था। ठंड से कंपकंपी छूटते आंखों में पानी आ गया है। लग रहा था कि अगले पल जान निकल जाएगी। काश, निकल जाती...<br /><em>तुमसे ना मिलके खुश रह पाएंगे,<br />वो दावा किधर गया...<br />दो रोज में गुलाब सा चेहरा उतर गया...</em>Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-33886557845721098722009-12-09T08:36:00.000-08:002009-12-09T09:02:15.325-08:00हंगर ज़ीरो<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgOSdxVX9cGQ2opn5WXncGwRIh2LTrKQ4FKTX_HglErlCKKFYAHND4lm7Qyw63Y7UdtPivlYCtNICDLy1fSlLS_xUE4EWVWV_XlQSrC2lomD7zdGQZ6RAOhGs8WO8N7HufUM5oxzhkpjTvw/s1600-h/76.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 186px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgOSdxVX9cGQ2opn5WXncGwRIh2LTrKQ4FKTX_HglErlCKKFYAHND4lm7Qyw63Y7UdtPivlYCtNICDLy1fSlLS_xUE4EWVWV_XlQSrC2lomD7zdGQZ6RAOhGs8WO8N7HufUM5oxzhkpjTvw/s320/76.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5413282294665807298" /></a><br /><strong>कल मानव अधिकार दिवस है।<br />हम कैसे इस दिवस को मना सकते हैं जब हम लोगों को दो जून की रोटी नहीं दे पाए हैं। इस निजाम ने तो इनसान के निवाले छीनने शुरू कर दिए हैं। दाल-रोटी के ही दाम आसमान चीरते जा रहे हैं। अधिकारों की बात तो तब हो, जब पेट भरा हुआ हो।<br />महंगाई का ग्राफ घर की लक्ष्मियों के ही प्राण हर रहा हो तो कल्पना कीजिए उस गरीब की जिसकी आय में कोई स्थिरता नहीं है।<br />सामर्थ्यवान मॉल्स-रेस्त्रा में हजारों रुपए का बिल भले ही चेहरे पर शिकन लाए बिना चुका देते हैं, लेकिन मेहनतकश को एक-एक रुपया भी माथे पर बल डालकर देते हैं, वह भी उसका पसीना सूखने के बाद...</strong><br /><br />अजमेर रोड के किनारे झुग्गी के बाहर बैठी सरिता को नहीं मालूम कि उसे आज रात का खाना नसीब होगा या नहीं। बढ़ती महंगाई ने आम आदमी का बजट तो बिगाड़ा है, साथ ही भीख मांगकर गुजारा करने वालों का निवाला भी छीन लिया है। सरिता कहती हैं कि अब लोग रोटी गिनकर बनाने लगे हैं। सब्जी भी उतनी बनाते हैं, जितनी जरूरत। बासी रोटी-सब्जी बचती नहीं और हमें खाली हाथ लौटना पड़ता है। सरिता जैसे न जाने कितने लोग आधा पेट भरकर संतोष करते हैं या किसी रोज भूखे पेट सोना भी उनकी मजबूरी है। कल मानवाधिकार दिवस है। जब तक देश का एक भी नागरिक भूखे पेट सोने पर मजबूर है, तब तक बाकी मानवाधिकारों की बात करना बेमानी ही है। 'दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओं' जैसे मुहावरे भी आज आम आदमी की पहुंच से दूर हो गए हैं, क्योंकि दालें अब 90 रुपए तक पहुंच गई हैं। चीनी के दोगुने हुए दामों ने आम आदमी की जिंदगी में बची मिठास भी गायब कर दी है। राशन कार्ड पर कुछ किलो दाल, चावल मुहैया करवाकर सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकती। हंगर जीरों और प्रत्येक नागरिक को सम्मान के साथ भोजन देने की घोषणाएं अभी दूर दिखाई देती हैं, लेकिन बढ़ती महंगाई ने आम आदमी को पेट काटने पर मजबूर कर दिया है। भीख मांगकर गुजारा करने वालों से लेकर बिजनेस क्लास फैमिली तक महंगाई के जैसे सवाल पूछे तो दर्द शब्दों में फूट पड़ा...<br /><strong>नहीं मिलता बासी खाना</strong><br />दो बच्चों की मां अनुराधा परेशान है। कई दिन हुए घर का चूल्हा नहीं जला। भीख में रोटी की जगह आटा-दाल देने वाले लोग अब महंगाई के ताने देने लगे हैं। अनुराधा कहती हैं कि पहले रोटी नहीं मिलती थी तो घरों से मिले आटे से खुद खाना बनाकर पेट भरते थे पर अब लोग हमें आटे-दाल का भाव सुनाकर भगा देते हैं। खुद तो कभी भूखे भी रह सकते हैं, लेकिन छोटे बच्चों को तो खाना खिलाना ही है। मेरे पति गलियों में झूला चलाते हैं। अब लोग रोटी-सब्जी की बजाए एक-दो रुपए दे देते हैं पर इतने पैसों से खाने का कुछ भी नहीं मिलता। पंद्रह-बीस लोगों से मिली चिल्लर से आटा खरीद लें तो उसे पकाने व सब्जी की समस्या रहती है। घरों से कुछ नहीं मिलता तो मंदिर-गुरुद्वारे से मिल जाता है। दूध के भाव भी बढ़ गए हैं तो बच्चे का दूध कम कर दिया है। चीनी महंगी हुई तो अब नहीं खरीदते। प्रसाद में बताशे मिलते हैं, उन्हें कूटकर दूध में मिला देती हूं। कभी कोई सदस्य बीमार हो जाए तो आफत आ जाती है। दवाई खरीदने में ही जान निकल जाती है।<br /><strong>अब घर कैसे जाएं</strong><br />चार साल पहले झारखंड से परिवार सहित जयपुर आकर बसी बसंती देवी घरों में बाई का काम करती हैं। पति चौकीदारी करते हैं। दो बेटे व दो बेटियां हैं। वे बताती हैं हम दोनों की कमाई से पहले मकान का किराया, बच्चों की पढ़ाई और घर खर्च चल जाता था, लेकिन बढ़ी महंगाई ने जैसे खुशियां ही छीन ली हैं। पहले हम सभी हर छह महीने बाद परिवार से मिलने झारखंड जाते थे, लेकिन अब इतनी बचत नहीं हो पाती कि घर जाने के लिए किराया जुटा सकें। इसी कारण अब तय किया है कि सालभर से पहले गांव नहीं जाएंगे। बेटे ने देखा कि महंगाई के कारण अब घर चलाना मुश्किल हो रहा है तो उसने पढ़ाई छोड़ दी। अब वह दवाई की फैक्ट्री में काम करता है। इससे कुछ आर्थिक मदद तो मिली पर उसकी पढ़ाई छूटने से मन बहुत दुखी है। <br /><strong>बच्चों की पढ़ाई में कटौती</strong><br />हम दोनों पति-पत्नी झाड़ू-बुहारी करके तीनों बेटों को खूब पढ़ाने-लिखाने का सपना संजोए थे, लेकिन बढ़ती महंगाई ने परेशान कर दिया है। सफाईकर्मी सीमा डंगोरिया कहती हैं कि बेटों की परीक्षाएं नजदीक हैं तो सोचा था कि बच्चों को ट्यूशन दिलाऊंगी पर अब यह मुश्किल लगता है। डर है कि कहीं बच्चों की पढ़ाई बीच में ना रुकवानी पड़े। आटा, दाल, चीनी, सब्जी के भाव बढ़ने से रसोई पर संकट आ गया है। बाकी चीजों के बिना गुजारा हो सकता है, लेकिन रोटी खाए बिना तो नहीं रह सकते। सब्जी महंगी थी तो दाल-चावल से काम चलता था पर अब तो दालों के भाव भी आसमान छू रहे हैं। कीमतें बढ़ानी हों तो अमीरों के काम आने वाली चीजों की बढ़ाएं। वे लोग तो अपनी बचत व फालतू खर्च में कटौती कर सकते हैं, लेकिन गरीब दो वक्त की रोटी भी नहीं खाएगा फिर काम कैसे करेगा।<br /><strong>लौटना पड़ा काम पर</strong><br />तीन साल पहले तक कीर्ति एक स्कूल में पढ़ाती थीं। मां बनने के बाद उन्होंने जॉब नहीं करने का फैसला किया। कीर्ति बताती हैं कि मैं अपना पूरा ध्यान बेटे की परवरिश पर देना चाहती थी, लेकिन महंगाई बढ़ने से घर का बजट बिगड़ने लगा था। बेटे का स्कूल में एडमिशन करवाया तो बढ़ती फीसों से सिर चकराने लगा। यहीं आकर मुझे अपना फैसला बदलना पड़ा और मैंने दोबारा जॉइन की। इससे बच्चे को कुछ कम टाइम दे पाती हूं, लेकिन अब जॉब करना बहुत जरूरी हो गया है। पति प्राइवेट जॉब में हैं। दोनों मिलकर मैनेज कर रहे हैं। मुझे हैरानी होती है कि मूलभूत आवश्यकताओं से जुड़ी चीजों के दाम बढ़ाकर आम आदमी का जीना दूभर क्यों किया जा रहा है। सरकार चाहे तो इलेक्टि्रक आइटस और लग्जरी चीजों के दाम बढ़ाए, ताकि आम आदमी पर असर नहीं पड़े।<br /><strong>मनोरंजन की छुट्टी</strong><br />आर्थिक रूप से संपन्न होने का मतलब यह नहीं कि महंगाई बढ़ने से कुछ असर ही ना पड़े। सोसायटी के साथ खुद को अपडेट रखना जरूरी होता है, लेकिन महंगाई बढ़ने से मैनेज करना मुश्किल हो गया है। हाउसवाइफ रेणुका शर्मा बताती हैं कि रसोई महंगी हुई है, लेकिन छोटे बच्चे हैं और हेल्थ के साथ समझौता नहीं कर सकते, इसलिए खाने में कटौती नहीं की। पहल पूरी फैमिली हफ्ते में एक-दो मूवी देखती थी, वीकेंड पर घूमने निकलते थे, वहीं अब ऐसे मनोरंजन के खर्च कंट्रोल कर लिए हैं। पति बिजनेसमैन हैं। उनसे कहा है कि वे पॉकेटमनी बढ़ाएं।Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-80986457773089259462009-10-25T11:59:00.000-07:002009-10-25T12:10:29.188-07:00मदद करें...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjV-dn_1uV0Gk2BgLryRNLQvUjMwsfJ2sVaxaA5FqfCuypFS9N9IQT_oc7KlcmihDZIQv9BbmW2uF_8HWBTi3Zjvgp9B49t_uJXXiWI1-qVemdnOsXx8zpEkQ8vomp16yVN6FHS_8HkZrtV/s1600-h/1213270932_75154bb19c.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjV-dn_1uV0Gk2BgLryRNLQvUjMwsfJ2sVaxaA5FqfCuypFS9N9IQT_oc7KlcmihDZIQv9BbmW2uF_8HWBTi3Zjvgp9B49t_uJXXiWI1-qVemdnOsXx8zpEkQ8vomp16yVN6FHS_8HkZrtV/s320/1213270932_75154bb19c.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5396616197087228290" /></a><br />कुछ सवाल परेशान करते हैं। उन्हीं में से एक है कि भगवान हैं या नहीं? कोई कहेगा कि हां हैं तो कोई कहेगा नहीं हैं। इसी आधार पर इनसानों के दो हिस्से हो जाएंगे-आस्तिक और नास्तिक। काफी लोगों से यह सवाल पूछा। हां बोलने वाले ज्यादातर लोगों से मेरा अगला सवाल था कि भगवान कहां हैं? सभी से एक ही जवाब मिला-'हमारे मन में।' मेरा अगला सवाल कि भगवान हमारे मन में हैं तो फिर मन दुखी क्यों होता है? जहां भगवान हैं, वहां दुख तो होना ही नहीं चाहिए। जितने जवाब मिले, उनमें से एक जवाब था-'भगवान हमारे मन में हैं। जब हम भगवान से ज्यादा किसी को मानने लगते हैं तो भगवान को दुख होता है। भगवान को दुख होता है तो हमारा मन भी दुख पाता है, क्योंकि मन में भगवान हैं।'<br />इस जवाब ने चेहरे पर हल्की मुस्कान तो ला दी, लेकिन संतुष्ट करने वाला जवाब अभी नहीं मिला। कुछ दिन भगवान के साथ बिताने की तमन्ना है। ऐसा हो सका तो कुछ दिन बाद शायद मैं इस सवाल का बेहतर जवाब दे सकूंगा। आपके पास इस सवाल का कारण सहित जवाब हो तो मदद करें...Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-19105772087570599492009-09-09T11:28:00.000-07:002009-09-09T11:52:17.007-07:00बीवी बड़ी या ब्लॉग?<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYtDd4YPZALJfZQdWENiKPtf6PU1ii3jscGkUzJzSw0WSsS_MGQS0DPdQ5dgyWZtdzvpA7UQspNVs-6FpEGGXSMfmfLOhsD3ZAfS_nb83WGhRf5dy3ducvxDGmFAP3fL9wsTRfFNeTQ0Ot/s1600-h/image001.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 218px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYtDd4YPZALJfZQdWENiKPtf6PU1ii3jscGkUzJzSw0WSsS_MGQS0DPdQ5dgyWZtdzvpA7UQspNVs-6FpEGGXSMfmfLOhsD3ZAfS_nb83WGhRf5dy3ducvxDGmFAP3fL9wsTRfFNeTQ0Ot/s320/image001.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5379542406879573154" /></a><br />काफी वक्त पहले यूं ही हमसे किसी ने पूछा था कि अक्ल बड़ी या भैंस? मैंने भी वैसा ही जवाब दे दिया कि भैंस तो देखी है, जरा अपनी अक्ल के दर्शन करवा दें तो आपके सवाल को एकदम सही हल कर दूं। ...खैर, अब एक नई कहावत रचने का मन है-बीवी बड़ी या ब्लॉग? देखा तो सभी ने बीवी को भी है और ब्लॉग को भी, लेकिन जवाब सभी का अलग-अलग हो सकता है। इस पोस्ट को प्रकाशित करने की राजीव जैन जी ने सहर्ष अनुमति दे दी है। अपने राजीव जैन जी की 'शुरुआतं' (www.shuruwat.blogspot.com) कइयों को ब्लॉगिंग की दुनिया में लाने की प्रेरणा बनी है। ब्लॉगिंग की तकनीकी जानकारी के लिए आज भी राजीव जी का नाम ही सबसे पहले जुबां पर आता है। वैसे बात बीवी और ब्लॉग की हुई है तो इसका कारण भी अपने राजीव ही हैं। ब्लॉगिंग की दुनिया के चमकते सितारे होने के अलावा किसी जमाने में जी-टॉक पर भी वे चौबीस घंटे ऑनलाइन नजर आते थे। ऑरकुट मे 'अजब है जिंदगीं' टाइटल के साथ भी वे सक्रिय थे, लेकिन आजकल वे गायब-से रहने लगे हैं। स्कूलों में बच्चों का नया सेशन शुरू हुआ तो इन्होंने भी सोचा कि क्यों न अजब जिंदगी को सच्ची में अजब बनाने के लिए जिंदगी का नया सेशन शुरू कर लें। इस तरह एक जुलाई को राजीव जी बने दूल्हा और हो गई जिंदगी की नई शुरुआत। इस बीच छूट गया ब्लॉगर्स साथियों का साथ। कभी एक दिन में दो-दो पोस्ट लिखने वाले राजीव जी महीनेभर का गैप देने लगे हैं। तीस अगस्त को 'आज मैंने किराए पर दो रुपए ज्यादा दिए' लिखा। इससे ठीक एक महीना पहले उन्होंने तीस जुलाई को 'राजस्थान में हर आदमी आरक्षितं' पोस्ट लिखी थी और इससे पहले शादी के ठीक बीस दिन बाद ऑफिस लौटने पर कुछ लिखा तो नहीं पर एक मित्र के साथ हुई चैटिंग को ब्लॉगर्स से रूबरू करवाया था। अभी उनसे शादी की तारीख पूछी तो जवाब मिल गया, लेकिन सगाई की तारीख पूछी तो जरा सोचने के बाद वे बोले-याद नहीं, बीवी से पूछना पड़ेगा।<br />ये वही राजीव जैन हैं, जिन्होंने सभी ब्लॉगर साथियों को एक मंच पर लाने के लिए 'लिंक रोड' बनाई है। पहले फिल्म समीक्षा और हर छोटी-बड़ी घटना पर लिखने वाले राजीव जी ने शायद शादी के बाद कोई फिल्म भी नहीं देखी है। एक फिल्म देखते हुए उन्हें अक्षय कुमार की गर्दन के सफेद बाल तक नजर आ गए थे। शादी के बाद शायद कोई फिल्म उन्होंने देखी भी हो, लेकिन अब सफेद बाल या किसी और चीज पर उनकी टिप्पणी 'शुरुआत' पर नजर नहीं आई। अभी दो दिन पहले हमने ब्लॉग से नाराजगी का कारण पूछा तो उनके मुंह खोलने से पहले जैसे उनकी आंखें हॉकिंग्स विज्ञापन के अंदाज में बोल पड़ीं-'जो बीवी से करे प्यार, वो ब्लॉगिंग से करें इनकार...।' चलिए, बहुत हुआ। राजीव जी को शादी की बधाई दीजिए। चलते-चलते 'शुरुआत' पर मार्च से अब तक लिखी गईं पोस्टों पर एक नजर। देखिए, घंटों का अंतर महीने में कैसे बढ़ा... <br /><strong>7 मार्च: </strong>एक अच्छी हॉरर फिल्म है 13-बी<br /><strong>8 मार्च: </strong>चल बसा एक गुमनाम सांसद<br /><strong>16 मार्च:</strong> क्या किसी ने देखे हैं भूत?<br /><strong>18 मार्च: </strong>आमिर का नया गेटअप<br /><strong>21 मार्च:</strong> बाप रे, सत्तर हजार की जगह सात लाख रुपए<br /><strong>22 मार्च:</strong> सरेआम फांसी की सजा सुनाने वाले जज विदा<br /><strong><strong>24 मार्च</strong>:</strong> बीमा एजेंटों के काम का सबूत हैं अखबार<br /><strong>1 अप्रेल:</strong> आज तो सही में गार्ड ने भगा दिया<br /><strong>1 अप्रेल:</strong> मुझे नहीं बनना टीवी पत्रकार<br /><strong>4 अप्रेल:</strong> एकदम पकाऊ तस्वीर, गले नहीं उतरती कहानी (समीक्षा)<br /><strong>9 अप्रेल:</strong> सिर्फ तस्वीरें और कैप्शन<br /><strong>12 अप्रेल:</strong> बाप रे, एक और मंदिर<br /><strong>14 अप्रेल:</strong> इतने डे क्या कम थे, जो मेट्रीमोनी-डे भी आ गया<br /><strong>18 अप्रेल:</strong> सर्किल नहीं, मौत का कुआं है<br /><strong>23 अप्रेल:</strong> असमंजस, क्या हम सही हैं?<br /><strong>27 अप्रेल:</strong> काश, ऑनलाइन मिलता खाना<br /><strong>6 मई:</strong> जयपुर की सड़क पर ये स्टंट<br /><strong>13 मई:</strong> जयपुर में विस्फोट के एक बरस बाद<br /><strong>15 मई:</strong> हर गलती सजा मांगती है<br /><strong>3 जून:</strong> आखिर बेच डाली छह सौ किलो रद्दी<br /><strong>21 जुलाई:</strong> शादी के बाद...(इस पोस्ट में सिर्फ चैटिंग को कॉपी-पेस्ट किया गया)<br /><strong>30 जुलाई:</strong> राजस्थान में हर आदमी आरक्षित<br /><strong>30 अगस्त:</strong> आज मैंने किराए पर दो रुपए ज्यादा दिएDileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-11150799369209209502009-09-03T00:53:00.000-07:002009-09-03T00:58:44.264-07:00श्यामलाल को घर जाना है...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAUaosJkvaBc5qzHMaOFAa2NFil-HhlpSKRbHpKCCL0rt0VMUWFH_rGtoKtxc9mfY3IbLHiyzgRIe-iP0IUGGUtebK68_bWGmahNgEr5ZRrwSEPKr1p9KMSDqsa1p0WvIJAEQtSaO-FJU_/s1600-h/image011.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 214px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAUaosJkvaBc5qzHMaOFAa2NFil-HhlpSKRbHpKCCL0rt0VMUWFH_rGtoKtxc9mfY3IbLHiyzgRIe-iP0IUGGUtebK68_bWGmahNgEr5ZRrwSEPKr1p9KMSDqsa1p0WvIJAEQtSaO-FJU_/s320/image011.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5377147153749037074" /></a><br />जब भी कोई किस्सा-कहानी किसी को सुनाता हूं तो अक्सर सामने से आवाज आती है कि ऐसा तुम्हारे साथ ही क्यों होता है...सभी लोग तुम्हे ही क्यों मिलते हैं? हर बार की तरह मेरा एक ही जवाब कि छोटी-छोटी बातों में कुछ बड़ा छिपा होता है। जरा-सा कुरेदकर देखो तो सब ओर कुछ किस्सा-कहानी है। इस कहानी का पात्र श्यामलाल है। श्यामलाल एक पेइंग गेस्ट हाउस में काम करता है। सभी को खाना सर्व करता है। हंसी-मजाक के साथ डांट भी सहन करता है। सब्जी में नमक कम-ज्यादा हो तो गलती कुक की, बर्तन पर परत जमी हो तो गलती बाई की, लेकिन सभी के हिस्से की डांट श्यामलाल के हिस्से में आती है। बावजूद इसके कभी चेहरे पर शिकन नहीं। वही फुर्ती और मुस्कुराहट बरकरार। अब मैं वह पेइंग गेस्ट हाउस छोड़ चुका हूं, लेकिन सुबह उठते ही श्यामलाल की आवाज 'भैया, नाश्ता कर लीजिए...' बहुत मिस करता हूं।<br />कुछ ही दिन पहले की बात है। एक साथी रिपोर्टर को कुछ लड़कियों के इंटरव्यू करने थे। अपने साथ पेइंग गेस्ट हाउस में ले गया। श्यामलाल को बुलाया गया। वह रिपोर्टर को लड़कियों के पास ले गया। रिपोर्टर को छोड़कर श्यामलाल मेरे पास आया और बोला-भैया, एक फोटो मेरा भी खींच दो।<br />मेरा जवाब-अभी सिर्फ लड़कियों के फोटो चाहिए। बाद में कभी देखेंगे।<br />श्यामलाल-नहीं, अखबार में फोटो नहीं छपवाना। घर भिजवाना है। सालों हो गए, घर गए। फोन आता है तो कहते हैं एक फोटो भेज दे।<br />मेरा जवाब-तो घर क्यों नहीं जा आते।<br />श्यामलाल-जाना है पर अभी कुछ पैसा और कमा लूं, फिर एक ही बार जाऊंगा।<br />श्यामलाल की ख्वाहिश पूरी हो, इससे पहले रिपोर्टर आती हैं। उन्हें जल्दी है और शायद कैमरे की बैटरी भी खत्म हो गई है। बाहर निकलते हुए दुखी महसूस करता हूं कि श्यामलाल की फोटो नहीं हो पाई। उसे आश्वासन देता हूं कि अगली बार जल्दी तुम्हारी फोटो करेंगे। <br />बड़ी-सी मुस्कुराहट के साथ श्यामलाल का जवाब-कोई बात नहीं भैया, जब कैमरा लाओ, तब फोटो कर देना...<br /><br /><em>(श्यामलाल हमेशा मुस्कुराता रहता है। फोटो का यह चेहरा श्यामलाल का नहीं, लेकिन शायद इसे भी घर जाना है...)</em>Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-86384241454263891562009-07-29T03:46:00.000-07:002009-07-29T04:05:57.724-07:00जवाब मिल गया है...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlfkHcSQZ_6U1J3MPAo_WG5zsJXsYLOc_mCRZ4rfVuMNLD9ucMV2Ts1opqP4qqa01VjXTECeirmrnjB7venKHWS_GY59uRqvmtAkMzl5K_q4hK8RUzI45av7Frl3GBNOupW2mnx-rGTac6/s1600-h/friendship_wallpaper_4_800x600.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 274px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlfkHcSQZ_6U1J3MPAo_WG5zsJXsYLOc_mCRZ4rfVuMNLD9ucMV2Ts1opqP4qqa01VjXTECeirmrnjB7venKHWS_GY59uRqvmtAkMzl5K_q4hK8RUzI45av7Frl3GBNOupW2mnx-rGTac6/s320/friendship_wallpaper_4_800x600.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5363836613127643842" /></a><br />कुछ सवालों के जवाब खुद-ब-खुद मिल जाते हैं। स्वयं का अनुभव है कि कोई सवाल परेशान कर रहा हो तो भगवान से उसका जवाब मांगें। देर हो सकती है, लेकिन खुली या बंद आंखों में ख्वाब बनकर ऊपर वाला जवाब जरूर देता है। ...खैर, यह ख्वाब से जवाब का अनुभव कुछ व्यक्तिगत है, इसलिए नहीं बता सकता। हां, एक बहुत पुराने सवाल का हल शायद मिल गया है। लगभग दो महीने पहले बेस्ट फ्रेंड था तो एक छोटी-सी पोस्ट के जरिए सभी ब्लागर्स से यह जानने की कोशिश की कि दोस्ती है क्या? दुख हुआ कि बिना पढ़े टिपियाने की आदत से मजबूर बंधुओं ने ई-मेल और ब्लॉग पर टिपियाने की औपचारिकता पूरी की। नतीजतन, वह सवाल सिर्फ सवाल ही रह गया। अब इतवार को फ्रेंडशिप-डे है तो स्टोरी के लिए कुछ लोगों के इंटरव्यू किए। 'दोस्ती´ पर न जाने कितना कुछ सुनने के बाद भी यूं लगा कि जवाब नहीं मिल पा रहा है। डेली न्यूज की बुधवारीय पत्रिका 'खुशबू´ में संपादक वर्षा भंभाणी मिर्जा की पाती की कुछ पंक्तियों से जैसे जवाब मिल गया है। उस पाती का एक अंश कुछ यूं है...<br /><strong>...दोस्ती ऐसा अनूठा भाव है जो इस दुनिया को जीने लायक बनाता है। दोस्ती वह कंधा है, जो हर मुश्किल में मजबूत सहारा देता है। एक ऐसा दिल है, जहां आपकी सारी परेशानियां गहरे कुएं में दफन हो जाती है। ऐसा दिमाग है जो आपको तकलीफों के हल यूं सुझाता है जैसे कोई जादूगर अपने रुमाल से सफेद कबूतर निकालता है। यकायक भीतर से आवाज आती है कि ऐसा दोस्त आजकल मिलता कहां है...सब किताबी बातें हैं... मतलब के यार हैं सब... लेकिन क्या आपने कभी ऐसे दोस्त बनाने की कोशिश की है? किसी के आगे इतना समर्पण किया है? दोस्ती ऐसा ही समर्पण चाहती है। भक्त का भगवान के सामने जो समर्पण है, वैसा ही। अहं को त्याग जिस तरह एक सच्चा भक्त मंदिर में दाखिल होता है, वैसा प्रवेश अगर सखा के सामने हो तो मित्रता की सूरत कुछ और होगी। बेशक यह चयन आपका है...।</strong><br /><br />अब तक मिले जवाबों में मुझे यह बातें ज्यादा मन को छूने वाली लगी। किसी की राय इससे इतर भी हो सकती है। बिना पढ़े टिपियाने की बजाए कुछ और बेहतर बताएंगे तो अच्छा लगेगा। शुक्रिया...Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-79622124730398103612009-07-02T07:29:00.000-07:002009-07-02T12:19:09.820-07:00मैं सुधर गई हूं!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_BZSLUvmYT3JEsHBWVG526icfUuf81TQcDqI3pysZWbUX1yF63OWWIHyotwIR02xVv_eyBelcKncilS2sO2ZG206wJkc77A5KPDByTIhcMv8Mz1AVf2HJg56E1SE5CCQW3ntr0KZM4siZ/s1600-h/ATT454.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 283px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_BZSLUvmYT3JEsHBWVG526icfUuf81TQcDqI3pysZWbUX1yF63OWWIHyotwIR02xVv_eyBelcKncilS2sO2ZG206wJkc77A5KPDByTIhcMv8Mz1AVf2HJg56E1SE5CCQW3ntr0KZM4siZ/s320/ATT454.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5353871514705191410" /></a><br />मेरे एक सहकर्मी की कॉलर ट्यून सुनिए-'आज की ताजा खबर...आओ काका जी इधर, आओ मामाजी इधर...ले लो दुनिया की खबर...´<br />'सन ऑफ इंडिया´ फिल्म का यह गाना पत्रकारों की कॉलर ट्यून के लिए एकदम फिट है। अखबार में काम करने वाला हर श�स (पत्रकार भी और गैर-पत्रकार भी) दुनिया की नजर में पत्रकार ही होता है। कोई मिलता है तो 'हाय-हैलो´ की जगह ताजा खबर पूछता ही दिखता है।<br />वैसे आज की ताजा खबर तो सभी को मालूम ही है। भारत में समलैंगिकों को कोर्ट की मंजूरी से कुछ पत्रकारों को भी मुसीबत झेलनी पड़ी। मेट्रो सिटिज को छोड़ें तो छोटे शहरों में ऐसे विषयों पर खबर लिखने वाले को भी तीखी नजरों का सामना करना पड़ता है। लगभग दो साल पहले लेस्बियन पर स्टोरी के दौरान मैंने एक समलैंगिक लड़की का फोटो सहित इंटरव्यू किया था। आज जैसे ही इसी टॉपिक पर खबर के आदेश हुए, सभी की नजर अपन की ओर दौड़ी। 'यार, कोई समलैंगिक का नंबर दो...´ पहले तो मैं सकपकाया, फिर दो साल पुरानी बात भी याद आई। तब कोम्प्लिमेंट कम और कमेंट ज्यादा मिले थे। खैर...उसी लेस्बियन लड़की को फोन घुमाया, जिसका इंटरव्यू किया था। ताजा खबर सुनाई तो उसके मुंह से निकला-'वाउ...´। मैंने कहा, इंटरव्यू दोगी? जवाब मिला-नहीं, अब तो मैं सुधर चुकी हूं। लड़कों में इंट्रेस्ट लेना भी शुरू कर दिया है।<br />'सुधर गई हूं´ जवाब सुनकर यह एहसास तो हुआ कि कहीं-न-कहीं ये लोग भी स्वीकार तो करते हैं कि समलैंगिता 'बिगड़ेपन´ की निशानी है। टाइम थोड़ा आगे बढ़ा। हमारी रिपोर्टर ने इसी टाइप की एक और लड़की को फोन घुमाया। उसने उलटे रिपोर्टर का इंटरव्यू ले डाला। आखिर में 'अब मैं वैसी नहीं रही हूं। चोटी भी बनाने लगी हूं...´ और सॉरी कहकर फोन रख दिया। रिपोर्टर ने जैसे-तैसे इसी मुद्दे पर एक अलग एंगल से स्टोरी तैयार की। विज्युअल के लिए डिजाइनर के पास गई तो वहां भी हंसते हुए मेरी ओर इशारा कर दिया गया। अपन को हंसी के साथ खूब गुस्सा भी आया। एक स्टोरी क्या लिख दी। अपन को समलैंगिक लोगों का स्पेशलिस्ट राइटर मान लिया गया कि फोटो, कॉन्टेक्ट, मैटर...सब मेरे पास उपलब्ध हो।<br />कुछ देर बाद रिपोर्टर से पूछा-कैसी रही स्टोरी? जवाब मिला-पसीना आ गया। सवाल पूछने वाले को भी शक की नजर से देखते हैं।<br />उनकी बात से महसूस हुआ कि ऐसे मुद्दे पर बायलाइन मिलना किसी पाप से कम नहीं। आज की खबर से मानवाधिकार दिवस पर छपी मेरी एक स्टोरी का भी खयाल आया। किन्नरों पर की वह स्टोरी 'खंडित वजूद´ जितनी पसंद की गई, उससे ज्यादा नेगटिव कमेंट भी मिले। 'हम हिजड़ों की स्टोरी नहीं पढ़ते...´ ऐसे कमेंट भी हुए। थोड़ा गुस्सा आया, लेकिन किन्नरों के इंटरव्यू के दौरान कही बात याद आई कि किन्नरों से नफरत करने वाले लोग भूलें नहीं कि लैंगिक विकलांग संतान तो किसी को भी पैदा हो सकती है। ऐसे कमेंट करने वालों को भी। तभी एक किन्नर ने दुख जताते हुए यह भी कहा था कि समलैंगिक लोगों के प्रति तो हमदर्दी जताई जा रही है, जबकि उन्हें भगवान ने स्त्री या पुरुष रूप में संपूर्ण भेजा है। उनकी विकृति तो मानसिक है। उन्हें इलाज की जरूरत है। किन्नरों की विकलांगता लैंगिक है और जन्म से भी, जिसमें उनका कोई दोष नहीं। क्यों सभी उनसे नफरत और भय का भाव रखते हैं। ...जवाब देंगे?Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-45183001021481721982009-06-26T12:35:00.000-07:002009-06-26T12:54:35.197-07:00अमर प्रेम की गजब कहानी...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiJG87RcPK16dfexOUchcDCmHXkYYF1G_QOAZEwxzS8OhG2vS3o5CfzR6fDszVf3I70ZFu3TvjvE7xOFZcvCiXDzsAGSk1eA4onxnAVbNr8RXZUA5RzaODLqcV7B6quDqcQGW3pG1OSZuj9/s1600-h/1.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 253px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiJG87RcPK16dfexOUchcDCmHXkYYF1G_QOAZEwxzS8OhG2vS3o5CfzR6fDszVf3I70ZFu3TvjvE7xOFZcvCiXDzsAGSk1eA4onxnAVbNr8RXZUA5RzaODLqcV7B6quDqcQGW3pG1OSZuj9/s320/1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5351726426209825698" /></a><br />मेरी पहचान का एक शख्स अपने प्रेम को 'अमर प्रेम´ कहता है। साथ पढ़ने वाली एक लड़की प्यार को सिर्फ टाइमपास बताती है। एक वरिष्ठ प्रेम को खुदा का दूजा रूप मानती हैं। ऐसे लोग भी देखे हैं, जो तू नहीं कोई और सही...पर चलते हैं। खुद की बात करूं तो अपने जीवन के तेइस बरसों में हर रोज प्रेम को अलग रूप में देखा है। अभी-अभी एक खबर सुनी कि मेरे शहर (श्रीगंगानगर) की उस लड़की ने दम तोड़ दिया, जिस पर कुछ रोज पहले उसके इकतरफे प्रेमी ने तेजाब फेंक दिया था। कितने ऐसे किस्से आए रोज सुनने को मिलते हैं। 'मैं तुम्हे भूल जाऊं, ये हो नहीं सकता और तुम मुझे भूल जाओ, ये मैं होने नहीं दूंगा...´ एक फिल्मी डायलॉग जबान पर है। क्यों भई, जबरदस्ती है क्या।<br />बहुत छोटा था, तब यही मानता था कि मां-बाप के अलावा किसी से प्रेम हो ही नहीं सकता। कुछ बड़ा हुआ। फिल्मी प्रेम को महज काल्पनिक माना। फिल्में देख खूब हंसता था कि यूं भी भला कोई किसी एक के लिए दुनिया भुलाने की बात कर सकता है। कुछ और बड़ा हुआ तो प्रेमी परिंदों को देख महसूस हुआ कि फिल्मी किस्से हकीकत में भी होते हैं। खुद को पहला प्यार हुआ तो बहुत मीठा एहसास लगा। प्यार में असफल रहा तो यही प्यार जहर लगने लगा। सोच लिया कि अब किसी से दिल नहीं लगाना। कुछ मजबूरियां और जरूरतें घर से दूर बड़े शहरों में खींच लाई। यहां तो प्रेमी जोड़े इस तरह घूमते नजर आए, जैसे छोटे शहरों में इतवार को सब्जी मंडी में लगी भीड़। बड़े शहरों के लोगों से संपर्क हुआ। उनके प्रेम के किस्से सुने। 'अमर प्रेम´ कहने वाले शख्स का प्यार एक नहीं, दो नहीं, लंबी चेन के साथ बारी-बारी प्रेम रूपी पींगें झूल रहा था। प्रेमी-प्रेमिका का रोना-धोना, घूमना-फिरना, खाना-पीना सब तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार जारी था ही। अमर प्रेम की ऐसी गजब कहानियां देख अच्छा नहीं लगा। अब तक मैं पार्ट लाइम और फुल टाइम लवर का ट्रेंड भी देख चुका था। बहुत-से लोग लव मैरिज की ख्वाहिश रखते हैं। मैं भी उनमें एक था। हालत ये हुई कि किसी ने दो रोज हंसकर बात कर ली, मुझे उसी के ख्वाब आने लगते। किसी को आज तक कह नहीं सका और अब तक जिनसे हंसमुख बातचीत है, ऐसा लगता है कि उन्हें मुझसे प्यार है, लेकिन मेरे मुंह से कहलवाने की चाह है। इजहार का क्या है, मैं खुद ही कर दूं, लेकिन उनके दिल की बात जानूं कैसे! कई बार तो अपने बड़बोले व्यवहार के कारण भरी महफ़िल में साफ़-साफ़ कह भी दिया-'कोई भी मुझसे दो दिन ढंग से बात करे तो तीसरे दिन थोडा लडाई-झगडा कर मेरा भ्रम तोड़ दे कि ये मोहब्बत नहीं है...' <br />प्यार क्या है, इस सवाल के जवाब में कई किताबें पढ़ डाली। बहुत लोगों से पूछ डाला। आखिर में इसी परिणाम पर पहुंचा कि जहां विश्वास टूटने की गुंजाइश नहीं, किसी के आंसुओं का कारण बनना नहीं, भरपूर समर्पण भाव...शायद यही प्यार है। फिर भी मैं तो अब तक कन्फ्यूज हूं। अब तक का निचोड़ यही कि अपने तो अपने होते हैं...बाकी आप यार-दोस्त, सगे-संबंधियों, जानने-पहचानने वालों के लिए लाख अपनापन दिखा दो, जान लुटा दो, मिलती ठोकर ही है...<strong>खैर, कोई बताने वाला हो तो बता दे कि ये प्रेम होती क्या बलां है...</strong><br />चलते-चलते कुछ लाईने अर्ज हैं...लिखने वाले का नाम नहीं जानता, लेकिन लिखा बहुत खूब इसलिए सलाम करता हूँ...<br /><em>पता नहीं क्यूँ उसके वादे पर करार रहा,<br />वो झूठा था पर उसपे मुझे ऐतबार रहा!<br />दिन-भर मेहनत ने मुझे दम ना लेने दिया <br />और फिर रात भर दर्द मुझसे बेहाल रहा!</em>Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-48195817538105667262009-06-18T11:54:00.000-07:002009-06-18T12:06:42.686-07:00पापा कहते हैं...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhvcEK3dZSBT7wNKYPcCbHzvX9Mp57XEPFMWhxYFoZzd0zvz-DS2Pfat-GEXT9omNOp7t0pwU0vH7Oh2-SDclhK9xWusPB7tOMRj5GuqQIdcuif0BZiyWz2TiWURDnZuoiBEZ5IbHoGp6SB/s1600-h/noname.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 270px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhvcEK3dZSBT7wNKYPcCbHzvX9Mp57XEPFMWhxYFoZzd0zvz-DS2Pfat-GEXT9omNOp7t0pwU0vH7Oh2-SDclhK9xWusPB7tOMRj5GuqQIdcuif0BZiyWz2TiWURDnZuoiBEZ5IbHoGp6SB/s320/noname.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5348745882856554066" /></a><br />पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा...लेकिन जब वे ऐसा ज्यादा ही कहने लगते हैं (खास तौर पर मेरे सामने) तो जाने क्यों खीझ उठता हूं। किसी से भी मिलवाते वक्त मेरा परिचय देने का उनका अंदाज मुझे जरा भी नहीं भाता। बहुत बार तो कह भी जाता हूं-'पापा, मैं अभी इतना बड़ा नहीं हुआ।´ उनका जवाब होता है-'ऐसे कैसे नहीं हुआ। तेरे लेख पढ़कर सब मुझे बधाई देते हैं तो...'<br />हमेशा उनकी बात बीच में ही काट देता हूं-'बस आप रहने दो। मुझे नहीं पसंद यह सब।'<br />ऐसी नोक-झोंक आए दिन की बात है, लेकिन मुझे याद नहीं कि मैंने कोई काम कहा हो और उन्होंने ना बोला हो। बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि काम उनके बस की बात नहीं होता, फिर भी वे पुरजोर कोशिश तो करते ही हैं।<br />कुछ रोज पहले फादर्स-डे पर स्टोरी तैयार करने के आदेश हुए। पहले से ही कुछ स्टोरीज पर काम कर रहा था। इतने बिजी शेडयुल में परेशान हो उठा। पापा को बताया कि ऐसे पिता ढूंढने हैं, जिन्होंने सब्जी बेची हो, रिक्शा चलाया हो ऐसा ही कुछ मेहनत-मजदूरी भरा काम कर अपने बच्चे को अफसर बना दिया हो। मेरा कहना था और उन्होंने अपना काम शुरू कर दिया। दो दिन में ऐसे चार बाप-बेटों के इंटरव्यू उन्होंने करवा दिए। स्टोरी सब्मिट करवाने का आखिरी दिन आया। कुछ फोटोग्राफ पापा ने नहीं भेजे थे। उन्हें फोन कर रहा था, लेकिन वे रिसीव नहीं कर रहे थे। झुंझलाहट और गुस्से में मैंने घर फोन किया। मम्मी से पूछा-'पापा कहां हैं? मुझे डांट पड़ेगी। उन्होंने अब तक फोटो नहीं भेजे...'<br />मैं बोलता जा रहा था। बमुश्किल सांस लेने को चुप हुआ तो मम्मी बोलीं-'फोन आया था कि खाना खाने नहीं आ पाएंगे। तेरी स्टोरी के फोटो खींचने गए हैं।'<br />इतना सुनते ही मेरी बोलती बंद हो गई। इसी बुधवार को जब यह स्टोरी प्रकाशित हुई तो जबरदस्त रेस्पोंस मिला। कुछ सेलिब्रिटिज के इंटरव्यू भी मैंने फोन पर किए थे। मुझे उम्मीद थी कि इसका रेस्पोंस ज्यादा मिलेगा, लेकिन पापा की मेहनत से पूरी हुई स्टोरी को पत्रिका के कवर पर जगह मिली। बहुत खुश था। पापा को शुक्रिया कहने के लिए फोन किया। वे बोले-'कंप्यूटर से अपने आप कैसे तुहें फोटो पहुंच जाती है? जब घर आएगा तो मुझे भी ई-मेल करना सिखाना।' बात पूरी होती, इससे पहले पापा के कोई परिचित आ गए। ई-मेल भूलकर वे उनसे बतियाने लगे-'ये देखो, बेटे के दो लेख एकसाथ छपे हैं। बड़ा लेखक बन रहा है। फिल्म स्टार्स से भी बात करता है...'<br />फोन चालू था। उनकी बातें सुनकर मुझे फिर गुस्सा आ रहा था। मन कर रहा था कि उन्हें कह दूं कि 'पापा, मैं अभी इतना बड़ा नहीं हुआ...´, लेकिन वे बहुत खुश थे, इसलिए कुछ कह न सका...Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-7208800557845984042009-06-14T09:20:00.000-07:002009-06-15T09:04:27.152-07:00सांभर वड़े और थोड़ा-सा प्यार<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkt2UmclgqqjSMeMozy37CI11Lx6lKYASmtWk0pNq-rLDcMmYt8NjmYBXYPkMYUXHztHo1IBQrmVEdwrgnvshvAIhWckpgdk_7Hv1wo-eCOuxx0VsZPNVMPjzHNhvvPZOT6mZbQ_gvImSm/s1600-h/15"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkt2UmclgqqjSMeMozy37CI11Lx6lKYASmtWk0pNq-rLDcMmYt8NjmYBXYPkMYUXHztHo1IBQrmVEdwrgnvshvAIhWckpgdk_7Hv1wo-eCOuxx0VsZPNVMPjzHNhvvPZOT6mZbQ_gvImSm/s320/15" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5347221121482527922" /></a><br />पेइंग गेस्ट हाउस में शिफ्ट हुए अभी एक महीना ही हुआ है। अंकल-आंटी की कृपा से बढ़िया खाना तो नसीब हो ही रहा है, लेकिन साथ रहने वाले कुछ जवानों की बातों से दिल भी बाग-बाग रहने लगा है। टेलीफोनिक प्रेमी तो सुबह जगने से लेकर रात को सोने तक नजर आते ही हैं, लेकिन आज नाश्ते के वक्त तो यूं लगा जैसे किसी ने दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। डाइनिंग रूम में थे कि श्यामलाल (हमें खाना परोसने वाले साहब) सांभर वड़े और शेक के साथ हाजिर हुए। उन्होंने पांच-पांच वड़े परोसे1 अपन के छोटे-से पेट के लिए तो वो पांच वड़े काफी थे, लेकिन साथ बैठे एक जनाब बोल पड़े-'इससे क्या होगा?' कहते हैं कि सच्चे प्यार में दर्द की पुकार दूर तक जाती है। उन्होंने बोला और ये दर्द साथ के गर्ल्स पीजी हाउस में उनकी मित्र तक पहुंच गया। फोन की घंटी बजी। वे जनाब बाहर निकले और चेहरे पर प्यारी मुस्कान के साथ एक बड़ा प्याला लेकर तुरंत वापस आ गए। प्याले में बड़े ही खूबसूरत अंदाज में सांभर वड़े और ऊपर नारियल की चटनी सजी थी। उनकी खुशी और मुस्कराहट को जैसे मेरी बात ने कम कर दिया। मैंने पूछा-'श्यामलाल तो यहीं है फिर ये वड़े...?´ जवाब मिला-'वो...वो..वो...मेरी फ्रेंड इसी पीजी में रहती है। उसे वड़े पसंद नहीं, सो...´<br />आगे उन्हें कुछ बोलने की जरूरत नहीं थी। खुद-ब-खुद उनकी भावना अपन समझ गए थे, फिर वड़ों पर प्यार-से सजाई नारियल चटनी भी तो इजहार कर रही थी। मैं सोच रहा था कि काश, कोई हमारे लिए भी यूं ही नारियल चटनी...<br />आगे कुछ सोच पाता, इससे पहले भगवान ने मेरी भी सुन ली। श्यामलाल जी नारियल चटनी के साथ डाइनिंग रूम में प्रवेश लाए और मुस्कुराते हुए बोले-आपके लिए चटनी तो मैं भूल ही गया था।Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-40193073945552443292009-06-10T03:03:00.000-07:002009-06-10T03:15:15.235-07:00नस्लभेद, नफरत या कुछ और...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjwcZEHxXwZL8rMhETjQOT30oZ1QKIfQf-OJJXp1I-3qYaeVm9TBb2iR27JDdHxtPb_QZ0UiL0-NSIlLitM-OhWHHGSQ6xQKdhzuLQtB_pclaTVqJWV8X23HXrslAKlr5CsCSkehRR8QF28/s1600-h/ATT00002.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 288px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjwcZEHxXwZL8rMhETjQOT30oZ1QKIfQf-OJJXp1I-3qYaeVm9TBb2iR27JDdHxtPb_QZ0UiL0-NSIlLitM-OhWHHGSQ6xQKdhzuLQtB_pclaTVqJWV8X23HXrslAKlr5CsCSkehRR8QF28/s320/ATT00002.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5345640410579733874" /></a><br /><strong>इन दिनों सभी भारतीयों के दिल में ऑस्ट्रेलियाई लोगों के लिए नफरत भड़क रही है। हम सोच रहे हैं कि वहां रह रहे भारतीयों पर अत्याचार हो रहा है। सच्चाई खैर जो भी हो, लेकिन हाथ की सभी उंगलियां एक-सी तो नहीं होतीं। डेली न्यूज की पत्रिका ´खुशबू´ के लिए मेलबर्न में रह रही भारतवंशी नवदीप कौर से बातचीत की तो इस मुद्दे का दूसरा पहलू सामने आया। इस पोस्ट के जरिए प्रस्तुत है नवदीप कौर के मन की बात, उन्हीं की जुबानी...</strong><br /><strong>तकरीबन</strong> चार साल पहले जब पढ़ाई के लिए ऑस्ट्रेलिया जाना तय हुआ, बहुत खुश थी। माता-पिता की इकलौती संतान होने के कारण कभी ट्रेन में भी अकेले सफर नहीं किया था। पहली बार उनसे इतनी दूर जा रही थी, इस कारण थोड़ी दुखी थी। पहली बार हवाई जहाज में बैठना था, इसलिए कुछ-कुछ डरी हुई भी। मुझे होटल मैनेजमेंट का कोर्स करना था, इसलिए ऑस्ट्रेलिया जाने का निर्णय किया। <br />जब यहां (मेलबर्न) आई तो सिर्फ अपने पहनावे में बदलाव करना पड़ा। खाने की भी थोड़ी समस्या आई, लेकिन यहां के लोगों से कभी कोई परेशानी नहीं हुई। एक बात अच्छी लगी कि इंडिया की तरह यहां कोई आपको घूर-घूर कर नहीं देखता। राह चलती लड़कियों को परेशान नहीं होना पड़ता। हालांकि ऑस्ट्रेलिया हो या इंडिया, अपराधिक प्रवृçत्त के लोग तो हर जगह होते हैं। मदद करने के मामले में ऑस्ट्रेलियंस कभी पीछे नहीं हटते। शुरुआत की एक बात याद आती है। बस से कॉलेज के लिए जा रही थी। एक विदेशी लड़के ने भद्दा कमेंट किया। मेरे साथ जो इंडियन फ्रेंड्स थे, वे इस पर हंस दिए। मुझे बहुत बुरा लगा, लेकिन बस में ही खड़े दूसरे विदेशी लड़के ने छेड़खानी करने वाले को खूब डांटा। इतने सालों से सब-कुछ बहुत अच्छा चल रहा था। यहां के फ्रेंड्स से बहुत घुलमिल गई हूं, लेकिन पता नहीं अचानक क्या हो गया? इन दिनों बहुत बुरा महसूस कर रही हूं। पापा-मम्मी बहुत टेंशन में हैं। टीवी और अखबारों में जिस तरह से खबरें आ रही हैं, उससे शायद सभी भारतीयों के मन में ऑस्ट्रेलियंस के लिए नफरत पैदा हो रही है। इधर, उसी नफरत से पनप रहे विरोध-प्रदर्शनों से ऑस्ट्रेलियंस को भी ठेस पहुंच रही है। आज हर इंडियन यही सोच रहा है कि ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों के साथ भेदभाव होता है, जबकि यह सच नहीं है। पिछले चार सालों में मुझे याद नहीं कि सिर्फ इंडियन होने के कारण मुझे परेशान किया गया हो। अब जिस तरह से घटनाओं का प्रचार किया जा रहा है, उससे जरूर ऑस्ट्रेलियाई फ्रेंड्स हमसे डरने लगे हैं। उन्हें लगने लगा है कि उनका मजाक भी हमें कहीं नस्लीय टिप्पणी ना लगने लगे। मैं सिर्फ एक बात कहना चाहूंगी कि असामाजिक तत्वों का कोई धर्म नहीं होता। अपराधी कभी यह देखकर लूटपाट नहीं करता कि उसका शिकार भारतीय है। एक हिंदुस्तानी के साथ जरा भी ज्यादती हुई है तो उसे नस्लीय हमला कहकर न्याय की मांग की जा रही है। ऑस्टे्रलियाई पुलिस के रिकॉर्ड देखेंगे तो ऑस्ट्रेलियंस को भी ऐसी घटनाओं का सामना करना पड़ रहा है। हमला करने वाले बेरोजगार, नशेड़ी या फिर कुछ मामलों में हिंदुस्तानियों से नफरत रखने वाले हो सकते हैं। यह पूरी तरह गलत है कि दो दोस्तों में हुए झगड़े को भी नस्लीय भेदभाव कहकर प्रचारित किया जा रहा है। इन चार सालों में कई ऑस्ट्रेलियाई फ्रेंड्स ऐसे भी बने, जिनके घर मेरा आना-जाना है। उन्हीं के घर जाकर जब भारतीय पकवान बनाकर उन्हें खिलाती हूं तो भरपूर स्नेह मिलता है। कुछ फ्रेंड्स को तो थोड़ी-बहुत हिंदी भी सिखा चुकी हूं। अब उन्हीं फ्रेंड्स के मन में डर पैदा हो गया है। वे हमसे डरते लगे हैं। ऐसा लगने लगा है कि इस दुष्प्रचार ने हमारे बीच संदेह पैदा कर दिया है। नस्लभेद के कारण दस प्रतिशत असुरक्षा हो सकती है, लेकिन भारतीयों को भी संयम बरतना होगा। यहां भारतीयों को शांत स्वभाव और मेहनती माना जाता है, लेकिन इंडिया घूमने जाने वाले विदेशी भी अपने साथ कुछ बुरे अनुभव लेकर जरूर लौटते हैं। भारत में टूरिस्ट्स के साथ होने वाली घटनाओं को भी वे नस्लीय भेदभाव से जोड़कर देख सकते हैं, लेकिन नहीं। वे भी जानते हैं और हमें भी मानना होगा कि परदेस के माहौल के अनुसार थोड़ा-बहुत परिवर्तन तो खुद में लाना ही होगा। विदेशियों को पराया समझकर उनसे बातचीत नहीं करेंगे तो उन्हें जान भी नहीं पाएंगे। मेलजोल की भावना रखे बिना कुछ नहीं हो सकता। मुझे लगता कि भारतीयों को अतिरिक्त सुरक्षा मुहैया करवाने के बजाए ऑस्ट्रेलियंस से उनका कयुनिकेशन गैप खत्म करने पर जोर देना चाहिए। अगर इसी तरह यह आग बढ़ती गई तो ऑस्ट्रेलियंस और हमारे बीच इतनी दूरियां आ जाएंगी कि उन्हें खत्म करना नामुमकिन हो जाएगा।Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-57772110215612776212009-05-17T13:07:00.000-07:002009-05-17T13:42:46.030-07:00जरा रुकिए, कपड़े बदल रही हूं...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitRWa3rO9hK-oPNkLkQR44P0IwMf5zlqAozyD-AQkivuKIIDYbvVyg4e3hrCPPNREzzRqXjFkxLnNad8KslLrNdObz9S1dLDop8bisJMEy_-6KsZlqmwv-_ZcIxxFbiMHkDy929-c-iQr0/s1600-h/FG-6683C.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 237px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitRWa3rO9hK-oPNkLkQR44P0IwMf5zlqAozyD-AQkivuKIIDYbvVyg4e3hrCPPNREzzRqXjFkxLnNad8KslLrNdObz9S1dLDop8bisJMEy_-6KsZlqmwv-_ZcIxxFbiMHkDy929-c-iQr0/s320/FG-6683C.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5336894652850231442" /></a><br />दोपहर तीन बजे का वक्त होगा। किसी काम से एक परिचित के घर दाखिल हुआ ही था कि मियां-बीवी का जोरदार झगड़ा सुनाई देने लगा। यहां पति को शक है कि पत्नी को कम सुनता है और पत्नी को लगता है कि जब तक ऊंची आवाज में बात ना करे पति पर असर नहीं होता। इसी चक्कर में दोनों का वॉल्यूम हाई रहता है।<br />आज झगड़े की वजह छोटी थी या बड़ी, इस बारे में सभी की राय अलग-अलग हो सकती है। घटना कुछ इस तरह है। इस घर के इकलौते कमरे की कुंडी ठीक से बंद नहीं होती। पत्नी जी कपड़े बदल रही थीं कि दोपहर भोज के लिए पधारे पति सीधे कमरे में प्रवेश कर गए। इससे पहले पूछा भी कि क्या कर रही हो? जवाब मिला-'जरा रुको, कपड़े बदल रही हूं।' पति को इस आदेश की पालना करना सही नहीं लगा और पति होने का हक जमाते हुए अंदर घुसते ही ऑर्डर दे डाला-'जल्दी करो, बहुत भूख लगी है। खाना गर्म करो।'<br />पति की इस हरकत से पत्नी तिलमिला गई और युद्ध शुरू हो गया। दोनों में से सही कौन...इसके निर्णय के लिए जज बना डाला मुझे और घटना का ब्यौरा दोनों ने अपने-अपने तरीके से देने लगे। पत्नी की नजर में ये गलत था तो पति का कहना था कि पति से कैसा परदा...<br />'अभी मेरी शादी नहीं हुईं, इसलिए मैं क्या बोलूं...' यह कहकर वहां से निकल लिया1 सभी की अपनी राय हो सकती हैं1 मुझे यहां पत्नी की बात ज्यादा सही लगी। कुछ लाइनें भी याद आ गईं, जो शायद निदा फाजली साहब की हैं...<br /><strong>अगर तुम समझते हो बीवी घर की इज्जत होती है<br />तो खुदा के लिए उस इज्जत की खातिर<br />दरवाजा खुला हो या बंद<br />हमेशा दस्तक देकर ही घर में दाखिल हुवा करो</strong>Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-1546637085518216312009-05-13T13:08:00.000-07:002009-05-13T13:21:19.004-07:00प्यार से प्यारी बात<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgeiQCwFJgH4PKlWM_0A1xrnkE2Df2C0hamAzwt25ZmChcYy2ZjoG63R_IKRLS9wBVe7L23ia9L4JcaIPwxJ3eeD9rRL49Os5zDPZE-7AZlHHJ4RZfDPagXH2Sf3l-xyEQBVqitG6YEPV5c/s1600-h/ATT00020.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 229px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgeiQCwFJgH4PKlWM_0A1xrnkE2Df2C0hamAzwt25ZmChcYy2ZjoG63R_IKRLS9wBVe7L23ia9L4JcaIPwxJ3eeD9rRL49Os5zDPZE-7AZlHHJ4RZfDPagXH2Sf3l-xyEQBVqitG6YEPV5c/s320/ATT00020.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5335406192702586194" /></a><br />पिछले साल आज ही के दिन यहां (जयपुर) बम धमाके हुए थे। आज के अखबार और न्यूज चैनल्स देख पुरानी यादों के जख्म ताजा हो उठे, लेकिन वो धमाके मुझे एक ऐसी सीख दे गए, जिसे समझ लिया जाए तो दोस्ती, प्यार और हर रिश्ता कभी दरकेगा नहीं।<br />करीब दो साल होने को हैं। हर मंगलवार मैं और मेरा दोस्त हिमांशु हनुमानजी के मंदिर जाते हैं। मंगलवार को मेरा ऑफिस से ऑफ होता है पर पिछले साल 13 मई (मंगलवार) को मुझे ऑफिस आना पड़ा। हम साथ मंदिर नहीं जा सके। देर शाम काम खत्म करने के बाद मैं अपने एक कलीग के साथ पास ऑफिस के पास स्थित माँ दुर्गा के मंदिर गया। मंदिर से बाहर निकले ही थे कि मेरे कलीग के मोबाइल पर मैसेज मिला कि यहां बम ब्लास्ट हुआ है। ऑफिस पहुंचने तक ये धमाके एक से ज्यादा हो चुके थे। टीवी पर धमाकों वाली जगह का लाइव टेलीकास्ट देख रहा था कि ध्यान आया यह रास्ते कुछ वैसे ही हैं, जहां से मैं और हिमांशु मंदिर आते-जाते वक्त गुजरा करते थे। मन ने एक अजीब-सा डर महसूस किया। हिमांशु को फोन लगाया पर नेटवर्क व्यस्त होने से मोबाइल काम नहीं कर रहे थे। कुछ देर बाद उसके पापा से बात हुई तो उन्होंने बताया कि वो ठीक है और घर आने वाला है। मेरा मोबाइल भी थोड़ी-थोड़ी देर बाद बज रहा था। कुशलक्षेम पूछने के लिए कुछ ऐसे परिचितों के फोन भी आए, जिन्होंने इससे पहले कभी फोन नहीं किया। हाल-चाल पूछने के लिए आने वाली कॉल्स का दौर अगले कुछ देर तक चला।<br />सभी भगवान का शुक्रिया अदा कर एक ही बात कह रहे थे कि हमें कुछ नहीं हुआ, लेकिन बावजूद इसके मेरा मन उदास था। कारण कुछ खास ना होकर भी दिल को परेशान करने वाला था। कुछ तीन-चार ऐसे अपने लोग थे, जिनका फोन नहीं आया था। मन में एक ही बात आ रही थी कि उनमें से किसी को भी मेरी परवाह नहीं है। जब दिल का उबाल बाहर आने लगा तो मैंने उन सभी को फोन कर एक ही राग अलापा-क्वमेरे मरने या जीने से शायद किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। इतने दिनों बाद ये पूछना भी मुनासिब नहीं समझा कि जिंदा हूं भी या नहीं...। गुस्से में काफी कुछ ऐसा भी कह गया, जो लिख नहीं सकता। इन्हीं अपनों में से एक का जवाब जैसे मेरे सारे सवालों पर भारी पड़ गया। उन्होंने कहा-<strong>तुम्हे कुछ नहीं हो सकता, क्योंकि हमारी दुआएं हर पल तुम्हारे साथ हैं। इस विश्वास को हमेशा दिल में रखा है। भगवान पर भरोसा है, इसीलिए फोन कर कुछ नहीं पूछा।</strong>सुख-दुख आते हैं पर बहुत बार रिश्तों में आई गलतफहमियां उनके दरकने का कारण बन जाती हैं। ...खैर यह छोटा-सा, प्यारा-सा जवाब जब भी मुझे याद आता है, मैं एक ही बात दोहराता हूं-मैंने सभी को माफ किया। मुनव्वर राणा ने भी क्या खूब कहा है...<br /><strong>अभी जिंदा है मां मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा...<br />घर से निकलता हूं तो दुआ भी साथ चलती है...</strong>Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-16293493076567547002009-05-04T06:12:00.000-07:002009-05-04T06:22:40.074-07:00सिर्फ प्रेमियों के लिए...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwoFZFOw9Xru9wUuzwnujkD87goviBT8PNhD8gb2wWeBXypKlKMZ45qkt9_u5OXz99iXStlGuwricpbRb9yn9jjbYxnCjkGOr5lUc04tO4PSTPeUf7KgH5P17gfHGGV7wc61JmIO_TD4uX/s1600-h/image005.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 249px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwoFZFOw9Xru9wUuzwnujkD87goviBT8PNhD8gb2wWeBXypKlKMZ45qkt9_u5OXz99iXStlGuwricpbRb9yn9jjbYxnCjkGOr5lUc04tO4PSTPeUf7KgH5P17gfHGGV7wc61JmIO_TD4uX/s320/image005.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5331958486978453826" /></a><br />ये है एक प्यारा-सा ई-मेल, पढिये और दिल में एक ख़ुशी के साथ थोडा मुस्कुराइए...ये पोस्ट सिर्फ प्रेमियों के लिए है...यानी सभी के लिए, क्यूंकि प्यार तो सभी को होता है...जरूरी नहीं की प्यार के लिए प्रेमिका का होना जरूरी हो...और भी बहुत-से रिश्ते है...माँ से बेहतर कोई हो सकता है क्या...खैर आप पढिये और कुछ महसूस कीजिये...<br /><br /><br /><strong>u in love...check this<br />12 signs you LOVE someone<br /><br /><br />TWELVE:<br />When you're on the phone with them late at night and they hang up, you still miss them even when it was just two minutes ago.<br /><br /><br /><br /><br />ELEVEN:<br />You walk really slow when you're with them.<br /><br /><br /><br /><br />TEN:<br />You feel shy whenever they're around.<br /><br /><br /><br /><br />NINE:<br />You smile when you hear their voice.<br /><br /><br /><br />EIGHT:<br />When you look at them, you can't see the other people around you, you just see him/her.<br /><br /><br /><br />SIX:<br />They're all you think about.<br /><br /><br /><br /><br />FIVE:<br />You realize you're always smiling when you're looking at them.<br /><br /><br /><br /><br />FOUR:<br />You would do anything for them, just to see them.<br /><br /><br /><br /><br />THREE:<br />While reading this, there was one person on your mind this whole time.<br /><br /><br /><br /><br />TWO:<br />You were so busy thinking about that person, you didn't notice number seven was missing<br /><br /><br /><br /><br />ONE:<br />You just scrolled up to check & are now silently laughing at yourself.<br /><br /><br /><br /><br />NOW REPLY ME WHO THAT PERSON WAS....? :)</strong>Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-85436198691162363732009-04-24T04:26:00.000-07:002009-04-24T09:43:06.537-07:00मैं वोट नहीं डालूँगा!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijALPR45HQxW-8v2mOhzbE5DjkjyRxr-4w6RYTyrSM0kE891qj7kp1uavgw7FVZy_iTtesGBmnAewhzQKDvjQyfKcvUWGRrErtGe3v3ZGBdkEt3vCspvWFghjO1PbAwl_Fec8MjdEIWn1H/s1600-h/image0044.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 230px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijALPR45HQxW-8v2mOhzbE5DjkjyRxr-4w6RYTyrSM0kE891qj7kp1uavgw7FVZy_iTtesGBmnAewhzQKDvjQyfKcvUWGRrErtGe3v3ZGBdkEt3vCspvWFghjO1PbAwl_Fec8MjdEIWn1H/s320/image0044.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5328220339195969522" /></a><br />रात करीब एक बजे का वक्त होगा। काम से फ्री हुआ ही था कि मेरे एक कलीग ने आवाज दी-`आओ, कहीं चलकर आते हैं।' बिना कुछ कहे मैं उनके साथ हो लिया। सुबह से ही किसी बात पर मैं बहुत दुखी महसूस कर रहा था। उनकी बाइक के पीछे बैठा भी सैड सॉन्ग गुनगुना रहा था। दस-पंद्रह मिनट बाद जब उन्होंने बाइक जेकेलोन अस्पताल (जयपुर में बच्चों का प्रसिद्ध अस्पताल) की तरफ मोड़ी, तब जाकर ध्यान आया कि मैंने तो उनसे पूछा तक नहीं कि जाना कहां है? <br />अपनी धुन से बाहर आते हुए मैंने सवाल किया-`इतनी रात हम अस्पताल क्यों आए हैं...कौन एडमिट है?'<br />जवाब मिला-`भांजी बीमार है?'<br />मैंने फिर पूछा-`कितने साल की है और क्या हुआ?'<br />जवाब था-`साल नहीं, बस दो महीने की है। हार्ट प्रोब्लम है।'<br />इस जवाब के बाद भी मेरे मन में अपने दुख का खयाल चल रहा था। उनके पीछे-पीछे चलता रहा। जूते खोलकर हम आईसीयू रूम में दाखिल हुए। अंदर पहुंचते ही यूं महसूस हुआ कि यमराज यहां बैठे सोच रहे हैं कि पहले किसे अपने साथ ले जाएं। हर पलंग पर मशीनों से लैस बच्चे और उनके पास एक बड़ा। कुछ बच्चों के बैड के पास उनकी मां बैठी थी। मां बिना पलकें झपकाए एकटक अपने बच्चे को देख रही थी। हर सैकंड मशीनों की बीप की आवाज जैसे माहौल को और भी ज्यादा खौफनाक बना रही थी।<br />मेरे कलीग ने भांजी के बैड पर बैठे अपने पिता से कुछ बात की। इस बीच बच्ची कराहने लगी। उसके मुंह पर मशीन लगी थी। हाथों और पैरों पर भी पट्टीनुमा कोई चीज चिपकी थी। शरीर के लगभग हर अंग से कोई ट्यूब लगी थी। इतनी चीजों के बोझ से बच्ची खुलकर रो भी नहीं पा रही थी। ये सब देखकर जाने क्यों मन से खुद का दुख काफूर हो गया। जिन बातों से दिनभर से मैं खुद को दुनिया का सबसे बड़ा दुखी इनसान मान रहा था। वह सब इन चंद पलों में मैं भूल गया। रूम से बाहर निकले तो साथी ने बताया कि यहां आए पांच दिन हुए हैं। हर दिन कुछ बच्चों की यहां मौत हो जाती है। भांजी के इलाज पर तीन-चार लाख का खर्च बता रहे हैं। दिल्ली ले जाना पड़ेगा। इतना पैसा नहीं है...।<br />वो बोलते जा रहे थे और मैं आंखों से बह रहे आंसुओं को रोकने की असफल कोशिश कर रहा था। जूते पहने और हम बाहर आ गए। वापसी में रास्ते में आने वाली हर चीज से जैसे मैं बातें कर रहा था। चुनाव प्रचार के लिए लगे बड़े-बड़े होर्डिंग्स देख दुख हुआ। इन पर खर्च हुई मोटी रकम बहुत लोगों की जान बचा सकती थी। मन ही मन तय कि इस बार वोट नहीं डालूंगा। रुपए-पैसे न होने के कारण कोई अपने बच्चे की जान न बचाए पाए...। काश, कोई नेता ऐसा भी आता, जो वादा करता कि जीतने पर कम-से-कम चिकित्सा सुविधा को फ्री करेगा। अफसोस कि ऐसा झूठा वादा भी नेताओं की लिस्ट में नहीं है। चुनावों में जूते फेंकने का फैशन चल निकला है तो मन किया है कि राजनीति के हर आदमी पर जूता फेंकूं...अगले ही पल सोचने लगा कि इतने जूते लाऊंगा कहां से...। खैर...ईश्वर से प्रार्थना कि ऐसा दुख किसी को न दे। मन दुखी था और होर्डिंग्स देख गुस्सा भी आ रहा था, इसलिए जो मन में आया लिख डाला। कुछ कम ज्यादा हुआ हो तो माफी। काश, भगवान् मुझ गंदे बच्चे को तीन-चार लाख दे दें...उस बच्ची को मैं बच्चा सकूँ...<br />>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>><br />अभी कुछ देर पहले सूचना मिली कि वो बच्ची नहीं रही...<br />>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-35648123450458021452009-04-18T09:56:00.000-07:002009-04-18T11:14:36.691-07:00मिस कॉल गर्ल!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqR7-DqlZt9uobHh7E8NzI5aCZrln85Xh4hCG8gSXmHABFRUhuzWlA1X1CtTYVQY3ct4Zewkj5_bLot1g2_tdj41ZF5yIKX2N-sGNgo5SkPQ3kHWVBQNa8bUOLgCGJPeNhXdAu48u0NLSA/s1600-h/ATT00009.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 234px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqR7-DqlZt9uobHh7E8NzI5aCZrln85Xh4hCG8gSXmHABFRUhuzWlA1X1CtTYVQY3ct4Zewkj5_bLot1g2_tdj41ZF5yIKX2N-sGNgo5SkPQ3kHWVBQNa8bUOLgCGJPeNhXdAu48u0NLSA/s320/ATT00009.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5326096289111223394" /></a><br />इन दिनों बहुत परेशान हूं। मोबाइल का बिल कुछ ज्यादा ही हो गया है। बहुत सारी मिस कॉल गर्ल का इसमें योगदान है। अरे भई, यहां शब्दों का स्पेस खत्म करने के चक्कर में भावना को गलत मत समझियेगा। मेरी भावना को समझेंगे, तभी तो भावना आपको समझेगी। क्यों...दरअसल, मैं किसी कॉलगर्ल की बात नहीं कर रहा हूं। मैं एक मिसकॉल गर्ल यानी हमेशा मिसकॉल करने वाली लड़कियों की बात कर रहा हूं। अभी परीक्षाएं खत्म हुई हैं। इस बीच महसूस हुआ कि अच्छे-अच्छे करोड़पति घरों की लड़कियों को भी मिसकॉल से बड़ा प्यार है। एक बार गलती से एक मिसकॉल गर्ल का फोन अटेंड कर लिया तो मुझ पर बरस पड़ी-अरे यार, मेरा फोन क्यों उठाया। काटकर दोबारा करना चाहिए। वाह भई, काम चाहे खुद का हो, लेकिन करेंगी मिसकॉल ही। इन मिसकॉल गर्ल जैसे लोग बहुत-से लोग आपके-हमारे सर्किल में हैं। मेरे सर्किल में तो कई ऐसे मिसकॉल पर्सन भी हैं, जिनके पास बीस-पच्चीस हजार की कीमत का मोबाइल सैट है और खुद का फोर व्हीलर भी। फोन पर कॉलर ट्यून का बिल भर सकते हैं, लेकिन कॉल करने में पसीने छूटते हैं। कुछ मिसकॉल प्रेमी तो ऐसे हैं, जिनकी मिसकॉल पर तुरंत फोन नहीं किया तो रौब से कहेंगे-यार तुम तो हमारा फोन ही नहीं उठाते। ...खैर अपन तो टाइमपास के लिए कुछ लिखने बैठे थे पर अगर भूले-भटके मिसकॉल प्रेमी भावना को समझ गए हों तो प्लीज मिस्ड कॉल से रिसीवड कॉल में आने की कृपा करें।Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-66665300278499596972009-04-11T09:52:00.000-07:002009-04-19T02:30:42.428-07:00रिटायरमेंट कब?<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtisrL_OvgOFO5iiOTcyntSg0wlEbc_hlbXRjTuDTpxzCBP62_BwrqLDmqzPirFVyXMwfXQQGcoE1eXdCjsKFwa-9HYw8JZOtPhFX4Gl0VT5hVkPSiJM5xjFBIIJ19kMR_I5e-x-wlqO8F/s1600-h/Ph.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 258px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtisrL_OvgOFO5iiOTcyntSg0wlEbc_hlbXRjTuDTpxzCBP62_BwrqLDmqzPirFVyXMwfXQQGcoE1eXdCjsKFwa-9HYw8JZOtPhFX4Gl0VT5hVkPSiJM5xjFBIIJ19kMR_I5e-x-wlqO8F/s320/Ph.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5323484503956396338" /></a><br />कभी-कभी एक फोटो इतना कुछ कह जाता है, जितने हजार शब्द भी नहीं कह पाते। यह बात किसी किताब में पढ़ी थी, लेकिन कभी-कभी कुछ पल ऐसा महसूस करवाते हैं, जो हजार शब्द या फोटो भी नहीं कह पाते। काफी दिन पहले जवाहर कला केंद्र की सुरेख कला दीर्घा (जयपुर) में फोटो एग्जिबिशिन देखने का मौका मिला। `शहर बनाम संवेदनां नामक इस एग्जिबिशिन के रूप में राजस्थान विश्वविद्यालय के जर्नलिज्म स्टूडेंट्स का पहला प्रयास काफी अच्छा रहा था। एग्जिबिशिन में कुछ फोटो ऐसे भी थे, जो शायद सवाल कर रहे थे कि वे किसी नेता, लेखक या पत्रकार की नजर से दूर क्यों रहे। <br />जाते हुए विजिटर बुक में टिप्पणी लिखी तो उन फोटोग्राफ्स की छोटी-छोटी कतरनों से सजा एक ब्रोशर भी साथ ले लिया। बाहर आकर रिक्शा किया। रास्ते में ब्रोशर देखते हुए नोट किया कि काफी फोटो उसी सड़क (जेएलएन मार्ग) से खींचे गए थे, जहां से मैं गुजर रहा था। `देवी मां की खंडित प्रतिमां, `खिलौने बेचते गरीब बच्चें, `सड़क किनारे का नजारां और भी बहुत कुछ जो एग्जिबिशिन में देखा था, उसी का लाइव टेलीकास्ट देख रहा था। रिक्शा अपनी गति से चल रहा था। घर पहुंचने में कुछ ही फासला था कि अचानक मेरी नजर रिक्शा चलाने वाले पर आकर ठहर गई। महज संयोग ही था कि जिस रिक्शा में मैं बैठा था, उसे चला रहे बूढ़े आदमी का फोटो भी एग्जिबिशिन में था। इसे क्लिक किया था सविता पारीक ने। ब्रोशर में फोटो छोटा था और पीछे से मैं उस आदमी की शक्ल भी ठीक से नहीं देख पा रहा था। रिक्शे से उतरा तो ब्रोशर दिखाते हुए पूछ ही लिया-`ये फोटो आपका है? जवाब मिला-`हां, काफी रोज पहले कुछ बच्चों ने खींचा तो था। यह फोटो था खूब बोझ ढोए हुए एक बूढ़े रिक्शा वाले का। कैप्शन लगा था-`रिटायरमेंट कब? मन हुआ कि उस बूढ़े आदमी से ही पूछ लूं कि उनका रिटायरमेंट कब, लेकिन मेरे किसी और सवाल का जवाब देने तक वे वहां से जा चुके थे। उन्होंने तो इस बात में भी दिलचस्पी नहीं दिखाई कि उनका फोटो कहां छपा है? दिलचस्पी होती भी क्यों, जहां पेट के लिए आदमी ही आदमी को ढोने पर मजबूर हो, वहां गरीब आदमी का रिटायरमेंट सांसें थमने पर ही होता है। <br />अपनी यही फीलिंग्स कल एक परिचित के साथ बांट रहा था। उसने एक ऐसी बात बताई कि आंखें नम हो गई। दोनों घटनाओं का पात्र एक बुजुर्ग रिक्शाचालक ही है। मेरे परिचित ने बताया कि कुछ साल पहले बीच सड़क एक रिक्शाचालक का शव मिला। उसके हाथ में दस रुपए का नोट था। अपने रिक्शा में किसी सवारी को ढोते हुए अचानक गश खाकर गिरे उस बूढ़े की सुध किसी ने नहीं ली। रिक्शा पर सवार आदमी ने भी उस बूढ़े के हाथ में किराया थमाया और चलता बना। शायद वो किसी गरीब का हक नहीं रखना चाहता था। बूढ़ा मरा है या सिर्फ बेहोश हुआ है, ये देखने की जहमत कौन उठाता। उस रिक्शाचालक की सांसें थम गई थी। यही उनके रिटायरमेंट का वक्त था और हाथ में दस रुपए का नोट उनकी पेंशन...।Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-53957890636270008282009-03-30T11:18:00.000-07:002009-04-19T02:33:33.940-07:00लेडिज टेलर के सपने<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYBJXGaBnE3JWaxOPGTJqubKmBqFS3oxkaMOgQDtY6-vxp4DrE_pWr67fmcSbmcRO6RJs6EzoIevNoDDbopVZt30XXsnXuzhYWQgUBB_1YasZiZqvCnqKE4SgepSfWbklnQXeFoxkDJwbu/s1600-h/image001.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 249px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYBJXGaBnE3JWaxOPGTJqubKmBqFS3oxkaMOgQDtY6-vxp4DrE_pWr67fmcSbmcRO6RJs6EzoIevNoDDbopVZt30XXsnXuzhYWQgUBB_1YasZiZqvCnqKE4SgepSfWbklnQXeFoxkDJwbu/s320/image001.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5319055074749137778" /></a><br />काफी वक्त पहले का एक धारावाहिक तो याद ही होगा। नाम था-`मुंगेरीलाल के हसीन सपनें। इन दिनों मैं बना हूं मुंगेरीलाल। सपनों में हसीनाएं आती हैं पर सपने जरा भी हसीन नहीं हैं। सुना था कि दिन के सपने सच होते हैं। अगर सच में ऐसा है तो फिर मुझ जैसे नाइट ड्यूटी करने वालों के तो सभी सपने सच होने चाहिए! वैसे नाइट ड्यूटी वालों की हालत बड़ी खस्ता होती है। कुछ दिन पहले एक सहकर्मी अपना रोना रो रहे थे। ड्यूटी से फ्री होकर घर जाते हैं। सोते-सोते घड़ी की सुइयां चार बजे को पार कर जाती हैं। पत्नी से प्यारभरी बात शुरू करें, इससे पहले घर के सामने वाले मंदिर की घंटियां माहौल भक्तिमय कर देती हैं। उन जनाब की बात सुनकर सभी के चेहरे पर उन्हें सांत्वना देने के भाव उमड़ रहे थे पर किसी को हम कुंवारों का दर्द नहीं दिखा। भई बीवी-बच्चे न सही, लेकिन हमारे सिरदर्द के कारण और हैं। दूसरों की छोड़ूं और अपना दुखड़ा बयान करूं। बात हंसने की नहीं, रोने की है पर समझे कौन!<br />छोटे शहरों से आए मुझ जैसे लोगों को बड़े शहरों के घरों में तंग जगह बड़ी अखरती है। मेरे कमरे के पीछे वाले कमरे में एक लेडिज टेलर साहब रहते हैं। वैसे बहुत-से पुरुष लेडिज टेलर को देख आहें भरते हैं। बहुत-से पुरुषों का ड्रीम जॉब है लेडिज टेलर। बस किन्हीं कारणों से लेडिज टेलर नहीं बन पाए, लेकिन ख्वाहिशे पीछा छोड़ती हैं क्या! ऐसी ख्वाहिशे रखने वाले ये देख लें कि दूर के ढोल सुहावने ही होते हैं। बात लेडिज टेलर और सपनों से शुरू हुई थी। ड्यूटी से फ्री होकर घर जाता हूं। एफएम पर सुबह पांच बजे भजन आते हैं। उन्हें सुनते हुए ही अक्सर आंख लगती है। भक्ति में लीन हुई मेरी आंखें खुलती हैं सूट और ब्लाउज के झगड़ों से। दो-तीन घंटे की नींद के बाद कुछ हलचल-सी होती हैं। पीछे वाले लेडिज टेलर से कोई महिला लड़ने पहुंच जाती है। डायलॉग कुछ ऐसे होते हैं-<br /><em>`बीस दिन हो गए, मेरा सूट नहीं सिला...परेशान हो गई चक्कर काटते-काटतें<br />`एडवांस पैसा लिया और ये क्या किया। ब्लाउज इतना टाइट...सत्यानाश हो गया मेरी नई साड़ी कां</em><br />और भी ऐसे बहुत-से डायलॉग, जिन्हें सुनकर आंखों के साथ-साथ कानों से आंसू आने लगें। रोज सुबह सूट-ब्लाउज के इस वाकयुद्ध से परेशान मैं बेचारा कभी कानों पर तकिया रखता हूं तो कभी बिना नींद पूरी किए ही उठ जाता हूं। अब कुछ दिन से एक नई मुसीबत शुरू हो गई है। मुझे सपने भी लेडिज टेलर और सूट-ब्लाउज के आने लगे हैं। सपनों में कभी लेडिज टेलर ही मैं होता हूं तो सूट लेने आई महिला के साथ आया उसका पति भी मैं। अब सपने हैं तो इन पर किसी का जोर थोड़े है। पति और टेलर दोनों की हालत बहुत खराब होती है। चिल्लाना महिला का काम होता है। चुपचाप खड़े रहना टेलर और पति का काम। वैसे अब यकीन होने लगा है कि सुबह के सपने सच होते हैं। क्या कहते हैं आप!Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-68033938089821561552009-03-22T09:32:00.000-07:002009-04-19T02:35:12.537-07:00लड़की होने का फायदा!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgRgla9iKuzhVPDozuDjGDxqAc1dhYXZjH_vNccrw9zavM5DmH4GrZHHokRF7NLb1HRYpsEYUdNEUlZ4Mlc5EeVQrsovO0scyyPD8wMlTSaTuDIj1Dvh8IzEg_phTFFPTs056_CZRTZ_ZpC/s1600-h/12.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 235px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgRgla9iKuzhVPDozuDjGDxqAc1dhYXZjH_vNccrw9zavM5DmH4GrZHHokRF7NLb1HRYpsEYUdNEUlZ4Mlc5EeVQrsovO0scyyPD8wMlTSaTuDIj1Dvh8IzEg_phTFFPTs056_CZRTZ_ZpC/s320/12.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5316052771743099570" /></a><br />एक लड़की ने दूसरी से पूछा-तू अगले जन्म में लड़की होना चाहेगी या लड़का? जवाब मिला-लड़का। हम पर कितनी बंदिशें हैं। बाहर ना जाओ, ये ना पहनो, ये ना खाओ, ज्यादा मत हंसो, कम बोलो...उन्हें कोई कुछ नहीं कहता। लड़का होने में बहुत मजा आता होगा ना?<br />इन बातों को सुनकर या पढ़कर एक बार चाहे हंसी आए पर ये छोटी-छोटी बातें गहरा दर्द लिए हैं।<br />लड़की होने का दर्द जो भी है पर कुछ रोज पहले मेरी क्लासमेट्स ने लड़की होने के खूब सारे फायदे गिना डाले। इन्हें सुनकर एक बार तो खुद पर तरस आने लगा। <br />फाइनल एग्जाम के लिए हमें प्रेक्टिकल तैयार करना था। लास्ट डेट थी 28 फरवरी। रातें जाग-जागकर ढाई-तीन महीने की मेहनत से अपन ने 25 फरवरी तक फाइल तैयार कर ली। राहत की सांस लेते हुए अपनी क्लास की लड़कियों से पूछा तो उनमें से ज्यादातर ने फाइल अभी शुरू भी नहीं की थी। हैरान था कि जिस काम में मुझे ढाई-तीन महीने लग गए, वह ये लड़कियां दो दिन में कैसे कर लेंगी। उन्हीं से पूछा तो पहला जवाब मिला-बॉयफ्रेंड को जिम्मेदारी सौंप दी है, वह किस दिन काम आएगा? कुछ भी करेगा पर 27 शाम तक फाइल तैयार होकर ला देगा।<br />दूसरी क्लासमेट का जवाब था-कैंटीन के कंप्यूटर सैंटर वाले से बात कर ली है। उसने टाइपिंग शुरू कर दी है। कल तक हो जाएगा।<br />मैं एक बार फिर हैरान। उसी कंप्यूटर वाले ने हताभर पहले क्लास के लड़कों को यह कहकर मना कर दिया था कि काम ज्यादा है, वो फाइलें तैयार नहीं कर पाएगा।<br />क्लासमेट को बताया तो जवाब मिला-तुम लड़कों को कंप्यूटर वाला मना कर सकता है पर मैं कहूं तो दो-चार फाइलें और तैयार करवा लाऊं।<br />वो कैसे?<br />लड़की होने का कुछ फायदा तो उठाना ही पड़ता है। जरा-सा हंसकर हिल-डुल कर बात करूंगी। वो समझेगा कि मुझ पर लट्टू हो रही है। काम हो जाएगा। उसके बाद तू कौन और मैं कौन? अपना काम बनता, ऐसी-तैसी करवाए जनता।<br />मैं बोला-देख, लड़की होने का यूं फायदा उठाना गलत बात है।<br />जवाब मिला-कुछ गलत नहीं है। कोई उल्टा काम थोड़े ना किया है। अगर हमारे हंसने, हिलने-डुलने से लड़के ज्यादा मेहनती और ज्यादा बेवकूफ बनते हैं तो फिर हंसने में कमी क्यों रखें।<br />मैं क्या बोलता? बात में दम तो है। लड़कियों के हंसनेभर से लड़के बेवकूफ बनते हैं तो गलती लड़कों की ही है। इसे इमोशनल अत्याचार कहें या कुछ और...।Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-85266511878583976692009-03-07T11:19:00.000-08:002009-04-19T02:38:03.923-07:00वो तो...रांड है!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCuLA9X5bEFkXJAD9bnxnunSSx0Tns0iWr_n0GUoYjINn_eaiuitvjuJha8-OxqQIZ6Gexn9E6ADdT6HZRL0E2PcYT7pbQ_fVQdmqE72sQqIC2xaYMVmt2kmnQH8VZqq4470F3AKmAXsQe/s1600-h/1169421939opr0z01dyi5.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 256px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCuLA9X5bEFkXJAD9bnxnunSSx0Tns0iWr_n0GUoYjINn_eaiuitvjuJha8-OxqQIZ6Gexn9E6ADdT6HZRL0E2PcYT7pbQ_fVQdmqE72sQqIC2xaYMVmt2kmnQH8VZqq4470F3AKmAXsQe/s320/1169421939opr0z01dyi5.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5310528527417281938" /></a><br />शीर्षक पढ़कर प्लीज यह मत सोचिएगा कि कुछ अश्लील लिखा है। दरअसल शीर्षक कुछ और भी हो सकता था, लेकिन इन चंद शब्दों का असर जिन साहब पर चाहता हूं, उन्हें ब्लॉग-व्लॉग पढ़ने का शौक नहीं है। ब्लू फिल्मों की तरह कभी-कभार ब्लॉग पर कुछ `ब्लू´ पढ़ने को मिल जाए तो वे नजरें वहीं जमा लेते हैं। इससे पहले की मेरी पोस्ट (गुलाब ज्यादा बिके या कंडोम) भी वे शीर्षक पढ़कर ही पूरी चट कर गए पर अफसोस जैसा मसाला वे चाहते थे, उन्हें नहीं मिला। पिछली पोस्ट लिखकर एक बात तो महसूस हुई कि कंडोम जैसे शब्द लिखनेभर से आपको बहादुर और आधुनिक मान लिया जाता है। पिछली पोस्ट पढ़कर कई परिचितों के फोन आए। `जयपुर जाकर तू बहुत बोल्ड (बहादुर) हो गया है...´ ऐसे कमेंट देने वाला और कोई नहीं, वे ही लोग थे जो दिनभर में अनगिनत बार कंडोम, रांड (वेश्या) और मां...बहन... बोलते हैं। भगवान की दया से अपन को बात करते वक्त मां...बहन... करने की आदत नहीं। अफसोस है कि इस बात की तारीफ कभी किसी ने नहीं की। इतना जरूर सुनने को मिला-ये तो मर्दों की निशानी है। ...खैर छोडि़ए, गाली देकर मर्द बनना अपन के तो आज तक समझ नहीं आया।<br />बात शुरू हुई थी `वो तो...रांड है!´ अपन के पहचान वाले तो इस तकिया कलाम से ही समझ गए होंगे कि ये किन साहब की बात हो रही है। इन साहब को दुनिया की 99 प्रतिशत महिलाएं वेश्या नजर आती हैं। राह चलती 5 साल की बच्ची हो या 50 साल की महिला...इनकी आंखें बेशर्म होकर ही उठती हैं। करीब दो साल से मेरा इन साहब से परिचय है। इन दो साल में मुझे दो बार भी याद नहीं कि किसी महिला को देखकर इन्होंने उसे वेश्या ना बताया हो। महिला दिवस है तो उसकी तैयारियों में सभी व्यस्त थे। कई फोटोग्राफ सामने थे। मजदूर महिला, राजनीतिज्ञ, खिलाड़ी, ब्यूटिशियन...और भी न जाने कितने। परदे से लेकर खुले मुंह वाली महिलाओं सभी के लिए इन साहब का यही तकिया कलाम-ये तो रांड है...मैं जानता हूं इसे। <br />मुझे याद है एक बार एक ऐसे लड़के का इंटरव्यू किया था, जो लड़की के वेश में डांस और मॉडलिंग करता है। उसकी एक लाइन चौंकाने वाली थी कि `लड़की होना अपने आपमें चुनौतीभरा है।´ पुरुषों को शिकायत रहती है कि पुरुष दिवस क्यों नहीं मनाया जाता। उस लड़के की बात सभी पुरुषों का जवाब है। महिला होना चुनौतीभरा है, इसलिए महिला दिवस भी है। वे चाहे परदे में रहें, उंगलियां उठाने वाले बाज नहीं आते। बेशर्म हो आंख तो घूंघट व्यर्थ है। महिला दिवस की बधाई। नारीशक्ति को प्रणाम के साथ उन साहब से एक गुजारिश कि अपना तकिया कलाम छोड़ दें, क्योंकि हर औरत वेश्या नहीं होती। औरत मां, बहन, बेटी, पत्नी और भी बहुत खूबसूरत रिश्तों का नाम होती है।Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-75300697262725497412009-02-13T11:47:00.000-08:002009-02-13T11:52:10.388-08:00गुलाब ज़्यादा बिके या कंडोम?<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj06TmZMMZsgPIJkBIoS5uXpdDaJWLFFjvpqzksteChjYBiw_mwX1mu5VFH2kWFqf_brL64WVVIzf88ziWzoSsl_Tn5bwh0NgBgf-1D4CfB5Bw1vZ-65N1KhEXMI3VZBmtlysu0-0M5ev6b/s1600-h/31522389mb5.png"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj06TmZMMZsgPIJkBIoS5uXpdDaJWLFFjvpqzksteChjYBiw_mwX1mu5VFH2kWFqf_brL64WVVIzf88ziWzoSsl_Tn5bwh0NgBgf-1D4CfB5Bw1vZ-65N1KhEXMI3VZBmtlysu0-0M5ev6b/s320/31522389mb5.png" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5302372110510536002" /></a><br />वेलेंटाइन्स-डे है तो विरोध के स्वर भी गूंजने लगे हैं। वेलेंटाइन्स समर्थक प्यार के विरोधियों का विरोध कर रहे हैं तो विरोधी यह कहकर विरोध जारी रखे हैं कि इससे भारतीय संस्कृति को नुकसान पहुंच रहा है। दोनों में कौन सही और कौन गलत...ये तो थोड़ी दूर की बात है। अभी कुछ दिन पहले एक अखबार में पढ़ा था कि वेलेंटाइन्स-डे पर सिर्फ जयपुर में करोड़ों रुपए के गुलाब बिकेंगे। इसी बीच किसी ब्लॉग पर लेखक की चिंता भी पढ़ी कि ज़्यादातर लड़के-लड़कियांे के लिए यह दिन फिजिकल रिलेशन बनाने का बहानाभर है। शुक्रवार को डिनर के बाद टहलने निकले। एक साथी के सिर में दर्द था। मेडिकल स्टोर पर डिसप्रिन लेने पहुंचे, तभी दो लड़के जल्दबाजी में वहीं आए- दो पैकेट `कोहिनूर´ देना। दुकानदार ने कंडोम के पैकेट दिए तो दोनों इस जुमले के साथ निकल लिए-`हो गई वेलेंटाइन की तैयारी।´ उम्र में बहुत छोटे दिख रहे इन प्रेमियों के जाने के बाद अपन ने दुकानदार की चुटकी ली-`अंकल, बच्चों को भी कंडोम बेच रहे हैं?´ जवाब मिला-`इन दो दिनों में सब बिक गए। कल वेलेंटाइन्स-डे है। कंडोम का सीजन।´ ...खैर क्या करें? कुछ नहीं तो सिर्फ इतना जरूर करें कि ऐसों को `प्रेमी´ तो ना कहें, क्योंकि इश्क, मोहब्बत, प्यार, चाहत इसे समझने में उम्र बीत जाएगी।<br /><strong>सबमें रब दिखता है...</strong><br />प्यार के मौसम में एक गाना खूब बज रहा है-`तुझमें रब दिखता है यारा मैं क्या करूं...।´ बात वेलेंटाइन्स-डे की चली है तो लगभग हफ्तेभर पुराना एक वाकया भी बता दूं। किसी काम से यूनिवçर्सटी जाना हुआ। वहां एफएम पर यही गाना बज रहा था। एक सहेली ने दूसरी से पूछा-`तुझे किसमें रब दिखता है?´ जवाब आया-`मुझे तो सबमें रब दिखता है। कोई स्मार्ट लड़का श्रीकृष्ण तो कोई गुरुनानक, कोई रामजी तो कोई भोले बाबा... लिस्ट बहुत लंबी है।´<br />...खैर यहां भी क्या कर सकते हैं। चमक-धमक टाइप लड़कियों के मुंह से और कुछ सुनें, इससे पहले अपुन ने मदर टेरेसा की लाइन पढ़ डाली-`हर इंसान में ईश्वर (रब) देखो, हर इनसान से प्यार करो।´ बशर्ते वो प्यार ही हो जनाब और कुछ नहीं। चलते-चलते इतना ही कि एक सर्वे भी करवा लिया जाए कि प्यार के महीने में गुलाब ज़्यादा बिके या फिर...।Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-80287682784819532302009-02-07T08:45:00.000-08:002009-02-07T08:48:28.004-08:00...वो तो काली है!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgg8gk94Kqa2h7jgmRl_Q_RrZ6hqny1Ddk_TbZYoi1O34WsbVaz2xpAzcruY4iui-HRkJAcR562Y6fQ8PXfiJDQmnRbSlm-iQmNO9R5eulDcIcuFswJZkb7SRii1A2Y5GwffzleaeoJvMCu/s1600-h/African-American-women.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 238px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgg8gk94Kqa2h7jgmRl_Q_RrZ6hqny1Ddk_TbZYoi1O34WsbVaz2xpAzcruY4iui-HRkJAcR562Y6fQ8PXfiJDQmnRbSlm-iQmNO9R5eulDcIcuFswJZkb7SRii1A2Y5GwffzleaeoJvMCu/s320/African-American-women.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5300098255081131362" /></a><br />भले ही ओबामा अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बन गए हैं, लेकिन अपने इंडिया की हालत न जाने कब सुधरेगी। यहां काले-गोरे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तो बनते रहते हैं, लेकिन बात लड़कियों की हो तो न जाने क्यूं उनका काला होना अपराध माना जाता है। अपने बेटे के लिए बहू चुनते वक्त तो `काली´ को नापसंद करने की बात बहुत बार सुनी होगी। अब तो हद हो गई। काम वाली बाई की डिमांड भी `गोरी´ ही है। दो दिन पहले की बात है। अपनी बर्तन वाली ने रिजाइन देने की घोषणा कुछ इस तरह की-`भाई जी, दस तारीख से मैं नहीं आऊंगी। गांव जा रही हूं हमेशा के लिए। अपना इंतजाम और मेरा हिसाब कर देना।´<br />कोई लंबा-चौड़ा हिसाब था नहीं, फिर ताजी-ताजी तनख्वाह भी मिली थी, इसलिए उसके हाथ में रुपए थमाते हुए मदद की भीख भी मैंने मांग ली-`हिसाब तो हो गया, अब नई काम वाली का इंतजाम भी करती जाओ।´<br />जवाब मिला-`काली चलेगी?´<br />मैं थोड़ा घबराते हुए बोला-`मुझे शादी थोड़े ही करनी है। काली-गोरी जैसी भी हो दौड़ेगी।´<br />वो बोली-`पहले पूछना सही है भाई जी। डेयरी के साथ वाली पंडिताइन भी इंतजाम के लिए बोली थी। मैंने इंतजाम किया तो मुंह बनाते हुए बोली-`...ये तो काली है। कोई ढंग की ढूंढ कर दे।´<br />बात सुनकर बड़ी हैरानी हुई कि कमबख्त बड़े शहर के रईसों को बर्तन धोने में भी ग्लैमर चाहिए। खैर, गुनगुनाते चलें-गोरे-गोरे मुखड़े दिल काले-काले...Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-3726575698431213172009-01-31T05:45:00.000-08:002009-01-31T05:59:01.634-08:00हम पागल ही अच्छे हैं...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCDgRyRJvHRrWJP0u8_gNQZWeAySRymTTKN6qXI0c_twmZPSsxzdefhyLJqKZdpmAIznLdPja7EzM_1ZLYySvlw3V6B893Txr0hHlHN8Iwc9sTIAU1qDIBdMUF35HH6_4GcrwkRV5lvjli/s1600-h/kh2802cj.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 134px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCDgRyRJvHRrWJP0u8_gNQZWeAySRymTTKN6qXI0c_twmZPSsxzdefhyLJqKZdpmAIznLdPja7EzM_1ZLYySvlw3V6B893Txr0hHlHN8Iwc9sTIAU1qDIBdMUF35HH6_4GcrwkRV5lvjli/s320/kh2802cj.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5297456921426709938" /></a><br />निर्धन परिवारों के बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा उपलब्ध करवाने का लक्ष्य लेकर चल रहे विद्यार्थी शिक्षा सहयोग समिति के संस्थापक श्यामसुंदर माहेश्वरी के पद्मश्री पुरस्कार के लिए चयनित होने की खबर के बाद से ही उनके घर बधाई देने वालों का तांता लगा है। फोन की घंटी है कि बंद होने का नाम ही नहीं ले रही। बधाइयों और फोन की घंटियों के बीच रुक-रुक कर चले उनके इंटरव्यू में देखा कि उनके शुभचिंतक हर जाति, हर मजहब के हैं। उन्होंने हर गरीब बच्चे को अपना माना है। अब तक के उनके सफर पर एक नजर...<br /><strong>घर जाकर बहुत रोये मां-बाप अकेले में,<br />सस्ता नहीं था कोई खिलौना उस मेले में।</strong><br />यह दो लाइनें दर्दभरी हैं, लेकिन ज्यादा दुख होता है यह सोचकर कि हम ऐसे देश में जी रहे हैं, जहां खिलौनों से महंगी शिक्षा हो गई है। पिता स्वर्गीय खयालीराम जी गरीब बच्चों के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे। 1971 में जब मैंने अध्यापन कार्य शुरू किया, तब पिताजी ने आशीर्वाद देकर निर्धन बच्चों की हरसंभव सहायता करने का वचन लिया। मैंने संकल्प लिया कि हर साल कुछ बच्चों को नि:शुल्क पढ़ाऊंगा। साल-दर-साल इन बच्चों की संख्या बढ़ने लगी। मैंने महसूस किया कि जहां हाथ रखो, वहीं दर्द है। हम ढोल पीटते हैं कि समाज में शिक्षा का स्तर नहीं बढ़ रहा है, लेकिन सोचने की बात है कि जो लोग दो वक्त की रोटी का जुगाड़ बमुश्किल कर पाते हैं, वह शिक्षा का खर्च कैसे वहन कर पाएंगे।<br /><strong>लोग मिलते गए और...</strong><br />आठ-दस बच्चों को नि:शुल्क पढ़ाना शुरू किया था। मेरे पास आने वाले बच्चे गरीब घरों से थे। धीरे-धीरे जब इन बच्चों की भीड़ बढ़ती गई तो कुछ लोगों ने मुझे `पागल´ और `सनकी´ तक कहना शुरू कर दिया। मेरे बच्चे तक मुझे कहने लगे थे कि पापा आप हमें छोड़कर इनके पास चले जाओगे। मेरे बेटों ने धीरे-धीरे मेरी भावना को समझा, लेकिन लोगों के ताने नहीं बदले। पिताजी को वादा कर चुका था, इसलिए हार नहीं मानी। बहुत मुश्किलें आई, लेकिन मेरे पढ़ाए बच्चों में से जब आईएएस, आईपीएस, बैंक मैनेजर और इंजीनियर जैसे पदों पर आसीन हुए तो लगा जैसे सारे जहां की खुशियां मिल गई हैं। धीरे-धीरे लोग साथ आते गए और कारवां बन गया। जो लोग मुझे पागल कहते थे, वे भी बधाई देने लगे। इनसान जब कुछ अलग करता है तो थोड़ा विद्रोह तो झेलना ही पड़ता है, इसलिए थोड़ा-बहुत मुझे भी झेलना पड़ा। भगतसिंह की दो लाइनें याद थीं...<br /><strong>इन दीवाने दिमागों में ख्वाबों के कुछ लच्छे हैं,<br />हमें पागल ही रहने दो, हम पागल ही अच्छे हैं।</strong><br /><strong>मेरा पद्मश्री पत्नी के नाम...</strong><br />मेरा मानना है कि आप किसी काम में तब तक सफल नहीं हो सकते, जब तक गृहलक्ष्मी उसमें सहयोग ना करे। मेरा यह पुरस्कार पूरी तरह मेरी पत्नी के नाम है। स्त्री को दुर्गा यूं ही नहीं कहा गया। वह अपने दो हाथों से दस हाथों जितने काम एकसाथ करने का सामर्थ्य रखती है। भूला नहीं हूं वो दिन। मेरी पत्नी पुष्पा कपड़े धो रही होती थी कि तभी किसी बच्चे की सहायता के लिए फोन बज उठता था। पत्नी फोन सुने, इससे पहले डोर बैल बज जाती थी। ऊपर से गैस पर चढ़ाए दूध का ध्यान भी रखना था। इन सभी चीजों को एकसाथ कैसे मैनेज करना है, यह स्त्री ही समझती है। पुष्पा ने यह सब किया। घर का राशन लाना हो या मेरी अनुपस्थिति में किसी जरूरतमंद बच्चे की मदद करनी हो...सभी काम पुष्पा ने किए। मुझे संगीत बहुत पसंद है। बहुत थका-हारा होने के बावजूद कभी रात को हारमोनियम बजाने का मन करता था। आवाज से कभी-कभी पड़ोसी जाग जाते थे पर दिनभर की थकी पत्नी ने उफ तक नहीं की।<br /><strong>वो बचपन का जमाना था...</strong><br />मेरे पिता आढ़ती थे। बचपन संपन्नता में गुजरा। कभी किसी चीज की कमी नहीं रही। बचपन के दिनों को याद करता हूं तो लगता है कि आज के बच्चे अपना बचपन जी ही नहीं रहे। हम बड़ों का आदर करते थे, लेकिन आज बड़ों को बच्चों से डरकर रहना पड़ रहा है। खुद की मर्जी चलाकर तो उम्रभर जीना है। बड़ों की डांट और उनके डर के साथ बिताए बचपन का मजा ही अलग था। उस जमाने में अनुशासनहीन कोई-कोई होता था और आज अनुशासित कोई-कोई है। बस इसी अंतर के कारण ही युवा अपने लक्ष्य से भटक रहे हैं।<br /><strong>मोबाइल है या मुसीबत...</strong><br />मैं मोबाइल नहीं रखता। कुछ लोग इस बात को झूठ समझते हैं, लेकिन मुझे बहुत-सी परेशानियों की जड़ तो मोबाइल लगता है। मैं खुद मोबाइल नहीं रखता, इसलिए कम-से-कम अपनी क्लास में तो स्टूडेंट्स को मोबाइल ऑफ रखने को कह सकता हूं। मेरा बड़ा बेटा मुम्बई में सीए है और छोटा यहीं लेक्चरर है। पद्मश्री की सूचना मिलने पर कुछ शुभचिंतकों ने बेटों से कहना शुरू कर दिया कि पापा को मोबाइल ले दो। मुझे मोबाइल नहीं रखना है, लेकिन बेटे की खुशी के लिए एक दिन के लिए उसका मोबाइल जेब में रख लिया है।<br /><strong>पुरस्कार के लिए काम नहीं...</strong><br />मैंने कभी किसी पुरस्कार की उम्मीद के साथ काम नहीं किया। हमारी समिति द्वारा शिक्षित बच्चे कुछ बनकर नाम कमा रहे हैं, वही हमारे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है। दरअसल, पुरस्कार काम करने के लिए प्रेरणा तो प्रदान करते हैं, लेकिन किसी काम की सफलता को पुरस्कार के आधार पर आंकना सही नहीं है। हमारे देश में बुनियादी समस्या शिक्षा की है। अगर शिक्षा की समस्या खत्म हो जाए तो बहुत-सी समस्याएं स्वत: ही खत्म हो जाएंगी। <br /><br /><em>(श्रीगंगानगर निवासी श्यामसुन्दर माहेश्वरी का जन्म 1 अगस्त, 1952 को श्रीकरणपुर में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा श्रीगंगानगर के श्री सनातन धर्म बड़ा मंदिर से हुई। इसके बाद एसडी बिहाणी स्कूल व कॉलेज से उन्होंने शिक्षा ग्रहण की। एसजीएन खालसा कॉलेज (श्रीगंगानगर) में कॉमर्स डिपार्टमेंट के एचओडी श्री माहेश्वरी डबल एमकॉम हैं। श्री माहेश्वरी ने 25 अक्तूबर, 1988 को विद्याथीü शिक्षा सहयोग समिति की स्थापना की। श्री माहेश्वरी के नेतृत्व में जनसहयोग से आज लगभग 4500 स्टूडेंट शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। श्री माहेश्वरी से पहले श्रीगंगानगर के कर्नल एएस चीमा (एवरेस्ट विजेता) को 1969 में पद्मश्री से नवाजा जा चुका है।)</em>Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-3329049389558392489.post-48322070180959158832009-01-20T12:26:00.000-08:002009-01-20T12:31:33.856-08:00मम्मी, बहलाना-फुसलाना क्या होता है?<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhET3MB0mK-Vb__5_2Eq3McyD7YuzBKl7LTwUGD0TzmF6cDXmmVFD1ECKDCg6NNxTZvINCT8UhMbyPNEl20DVnSUPLmomzLulj2Do1XzPo-q19N55jglIQ4YdWqWjy-VMG9qu2MYcOnajgd/s1600-h/question-mark_cartoon%5B1%5D.JPG"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 304px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhET3MB0mK-Vb__5_2Eq3McyD7YuzBKl7LTwUGD0TzmF6cDXmmVFD1ECKDCg6NNxTZvINCT8UhMbyPNEl20DVnSUPLmomzLulj2Do1XzPo-q19N55jglIQ4YdWqWjy-VMG9qu2MYcOnajgd/s320/question-mark_cartoon%5B1%5D.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5293476179267620290" /></a><br />बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं। वो एक गीत भी तो है-बच्चे मन के सच्चे...। भई बच्चों का मन तो सच्चा है, लेकिन वे भगवान का रूप सिर्फ तभी तक हैं, जब तक वे सही मायने में बच्चे ही रहते हैं। अब वो जमाना तो रहा नहीं कि पंद्रह-सोलह साल से पहले बच्चों को दुनियादारी की खबर नहीं होती थी। उम्र से पहले समझदार होते बच्चे कभी-कभी कुछ ऐसे सवाल पूछ लेते हैं कि सामने वाला टेंशन में आ जाए। अभी कल ही की बात लीजिए। मैं अपने एक मित्र के घर बैठा था कि उनका दस वर्षीय बेटा हाथ में अखबार उठाए वहां आया और पूछने लगा-`मम्मी, बहलाना-फुसलाना क्या होता है?´ भाभी ने पूछा-`तुम ये क्यों पूछ रहे हो?´ बच्चा बोला-`अखबार में छपा है कि चार बच्चों की मम्मी को एक आदमी बहला-फुसलाकर भगा ले गया।´ उसकी बात का भाभी को कोई जवाब नहीं सूझा। वे बोलीं-`आजकल टीवी पर बड़े बेकार प्रोग्राम आते हैं, इसलिए इसके पापा ने इसे टीवी देखने की बजाय अखबार पढ़नेे का शौक अपनाने को कहा है। अब लगता है कि इसके अजीब सवाल फिर सरदर्द बनेंगे।´ भाभी अपनी बात पूरी करतीं, इससे पहले बच्चा फिर बोला-`मम्मी, बताओ न, बहलाना-फुसलाना क्या होता है?´ भाभी ने खुद बचते हुए मेरी ओर इशारा किया-`अपने चाचा से पूछ लो।´ मैं संभलता इससे पहले बच्चा मेरे पास आकर वही सवाल दोहराने लगा। मैंने किसी तरह बच्चे के सवाल का जवाब दिया तो उसने तपाक से एक और सवाल दाग दिया-`जब मैं ही किसी के बहलाने-फुसलाने में नहीं आता तो मम्मी जितनी आंटी को कैसे किसी ने बहला-फुसला लिया।´ अब बच्चे की बात में सच्चाई तो थी पर उसके इस सवाल का जवाब मेरे पास भी नहीं था। `कल जाकर अपनी टीचर से पूछ लेना´ यह कहकर मैंने अपना पीछा छुड़ाया। घर लौटा तो बार-बार उस बच्चे की टीचर का खयाल आ रहा था, पता नहीं वे उस बच्चे के सवाल का जवाब दे पाएंगी या नहीं?<br />यही बात मैंने अपने एक एडवोकेट मित्र को बताई तो वे हंसते हुए बोले-`हमारे पास तो आए दिन ऐसे केस आते हैं। हम भी फुरसत में बैठकर यही सोचते हैं कि कैसा कानून है हमारा। 5 साल की बच्ची से लेकर 50 साल की महिला को बहलाने-फुसलाने का मुकदमा दर्ज होता है। देखते नहीं हो, प्रेमी जोड़े घर से फरार होते हैं तो केस दर्ज होता है-लड़के ने लड़की को बहला-फुसलाकर भगा लिया। असली माजरा क्या है, ये तो हम वकील, कुर्सी पर बैठे जज और हर कोई जानता है, लेकिन क्या करें कानून स ऊपर कोई है क्या...´Dileepraaj Nagpalhttp://www.blogger.com/profile/15936510510123199146noreply@blogger.com7