Friday, January 15, 2010
कार वाले हॉकर...
('प्रताप केसरी' के संस्थापक-संपादक स्व.कमल नागपाल जी की आज पुण्यतिथि है)
उन्हें गए कितने दिन हुए...एक और बरस बीत गया। एक से दो, दो से तीन, तीन से चार...इसी तरह बरस बीतते जाएंगे और हम हमेशा यही कहेंगे कि इतने साल हो गए उन्हें गुजरे, लेकिन यूं लगता है जैसे कल तक वे हमारे साथ थे। तारीखें बढ़ती रहेंगी पर दिन और रात तो वही रहेंगे। सभी के लिए नहीं तो कम-से-कम मुझ जैसों के लिए तो ऐसा होगा ही, जिन्हें लंबे समय तक उनके सान्नध्य का सौभाग्य मिला है। स्व. कमल नागपाल जी को श्रद्धांजलि के लिए कोई लेख या प्रशंसा-पत्र लिखना तो बेमानी ही होगा। उनके साथ बिताए लंबे समय की यादों ने मेरे मन की परतों के साथ जैसे एक किताब का रूप ले लिया है। उन्हीं परतों में से कुछ खोल रहा हूं।
'दीपू, जल्दी काम निपटा लो। तुम्हें मेरे साथ चलना है।' उनका ये मैसेज मिलते ही मेरी उंगलियां दोगुनी तेजी से की-बोर्ड पर चलने लगती थी। स्वभाव से थोड़ा घुमक्कड़ हूं, लेकिन इसके अलावा भी कारण बहुत-से थे। उनके साथ हर बार कुछ नया सीखने का मौका मिलना और पूरे रास्ते गजलों का आनंद आदि के बारे में सोचकर ही मैं एनर्जी से भर जाता था।
कार को साफ करने के बाद ऑफिस बॉय उसमें पानी की बोतल, टिफिन के साथ जरूरी सामान रखता, तब तक अंकल डायरी, पेन और दो-तीन लेटर पैड लेकर आ जाते। लेटर-पैड एक से ज्यादा इसलिए होते थे, क्योंकि एक-डेढ़ घंटे के सफर में न जाने कितनी खबरें उनके दिमाग में कैद हो जाती थीं। कार में रखे सामान पर नजर डालते हुए वे पूछते-'सब-कुछ आ गया?' ऑफिस बॉय हां में सिर हिलाता तो वे कहते-'सबसे जरूरी चीज नहीं आई। 'प्रताप केसरी' कहां है? टिफिन रह जाए, लेकिन अखबार नहीं रहने चाहिए।'
ऑफिस बॉय दौड़कर जाता और अखबार का बंडल कार की पिछली सीट पर रख देता। ऊपर वाले का नाम लेकर हम रवाना होते। श्रीगंगानगर क्रॉस होते ही वे कभी भी मुझसे पूछ लेते-'हम कहां पहुंचे हैं?' मैं हड़बड़ाया हुआ-सा इधर-उधर ताकने लगता। कार के स्टीरियो की आवाज कम करते हुए थोड़ा डांटकर वे कहते-'गजलों में इतने गुम मत हुआ करो कि कहीं और ध्यान ही ना रहे। पत्रकार की तरह दो आंखें अंदर और दो आंखें बाहर रखा करो...।'
वे कुछ और कहें, इससे पहले तीन-चार आदमी उनकी गाड़ी के पास आते। सभी को वे 'प्रताप केसरी' की एक-एक कॉपी देते। मैं बड़ी तल्लीनता से देखता। वे अपनी बात आगे बढ़ाते-'पत्रकार चार आंखें नहीं रखेगा तो अखबार किसी काम का नहीं रहेगा। इन गांव वालों के पास अखबार काफी देरी से पहुंचता है या फिर पहुंचता ही नहीं। कुछ गरीबी के कारण खरीद नहीं पाते। शुरुआत में एक-दो बार इनके लिए अखबार लाया तो ये हमेशा इंतजार करने लगे। प्रेस की गाड़ी देखते ही दुकानों-घरों से बाहर निकल गाड़ी के नजदीक आ जाते हैं।'
वे मुस्कुराकर बोले-'इनके प्यार ने संपादक के साथ मुझे हॉकर भी बना दिया।'
अचानक मेरे मुंह से निकल गया-'कार वाले हॉकर...।'
वे बोले-'कार तो बाद में आई। हॉकर तो मैं पहले-से हूं।'
हम दोनों जोर-से ठहाका लगाते हैं। बिलकुल ऐसे, जैसे दो हमउम्र दोस्त हों। इस हंसी और उनकी सादगी में तीस-पैंतीस साल का अंतर कहीं गुम हो जाता। उस ठहाके की आवाज आज भी मेरे भीतर कहीं गूंजती है।
...वी ऑलवेज मिस यूं अंकल।
Thursday, January 7, 2010
मैंने किसी का दिल दुखाया है...
दो रातों से सोया नहीं हूं। मैंने किसी का दिल दुखा दिया है, क्योंकि वही दिल मुझे बेवकूफ बनाता है। मेरी आंखों में आंसू लाता है। एक बार नहीं, बार-बार। कितनी बार माफ करूं। हर बार यही सोचता हूं कि एक मौका और...पर इस बार नहीं...। भरोसा टूटता है फिर जुड़ता है पर इतनी दरारें अच्छी नहीं। कुछ इतना बुरा हो कि दिलों में नफरत पनप उठे, इससे तो अच्छा है कि दूरियां बन जाएं। उसी की दोस्त के ऑरकुट प्रोफाइल में पढ़ा कि किसी के लिए कितना ही कर लो, कम पड़ ही जाता है...। रात को घड़ी देखते, एफएम सुनते, आंखें नम...। खुद से बातें होती हैं कि दो दिन हो गए, अब मुझे मान जाना चाहिए पर अगले ही पल खयाल आता है कि ऐसे मानने से क्या होगा कि फिर दुखी होने के लिए खुद को पेश करना...
पागलों की तरह खुद से यूं ही बड़बड़ाता रहता हूं। आज जल्दी ऑफिस आना था। आते ही एक प्रेम कहानी टाइप करने को मिल गई। लेखक की सच्ची कहानी। मुझे लगता है कि हर कहानी सच्ची होती है, बस यूं ही लिखने वाले 'यह कहानी और इसके सभी पात्र काल्पनिक हैं' जैसी बातें लिख देते हैं।
इस कहानी की एक लाइन थी-'मैंने तीन दिन से कुछ नहीं खाया, फिर लोग रसोई क्यों बनाते हैं?'
बहुत दर्द है इस लाइन में पर इसे वही समझे, जिसके पास दिल हो। मैंने भी कहा, अब तक मैंने गर्म कपड़े नहीं पहने, फिर लोग क्यों गर्म कपड़े खरीदते हैं। ठंड दिनोंदिन बढ़ रही है। मुझे तो वैसे भी ठंड ज्यादा लगती है। पिछले साल तक ठंड में इनर के अलावा दो-दो जींस पहनने वाला इस बार सर्दी के कपड़े पैक कर चुका हूं। ऑफिस में किसी ने बोला-तुहें ठंड नहीं लगती? झूठी मुस्कान के साथ मैंने भी झूठ बोल दिया-सुबह इतने गर्म पानी से नहाता हूं कि वो गर्मी दिनभर ठंड का अहसास ही नहीं होने देती।
कैसे बताता उसे असली कारण। बताऊं भी क्यों, जब मम्मी को नहीं बताया। दो दिन पहले फोन पर उनसे बतियाते हुए रुलाई फूट पड़ी तो फोन काट दिया। स्विच ऑफ कर दिया। घंटे बाद ऑन किया तो पहला फोन घर से। मां है न, सब समझ जाती है। बोलीं-रोया क्यों, फिर कुछ हुआ क्या?
मैंने फिर झूठ बोला-नहीं, चार्जिंग खत्म हो गई थी। अब फोन रखो, मुझे नहाने जाना है। नहाकर निकला, तब तक कुछ कॉल्स मोबाइल पर मिस हो चुकी थी। उसकी नहीं, जिसके कारण रोया, सभी कॉल घर से थी। काश...उसकी होती। खुद को चपत लगाकर बोला-आय एम मजबूत मैन।
मजबूत मैन इसलिए, क्योंकि अंग्रेजी में हाथ तंग है। मजबूत का अंग्रेजी शब्द ध्यान नहीं आया। ठंडे मारबल के फर्श पर गीला तौलिया लपेटे पूजा करते हुए भगवान में ध्यान नहीं लग रहा था। ठंड से कंपकंपी छूटते आंखों में पानी आ गया है। लग रहा था कि अगले पल जान निकल जाएगी। काश, निकल जाती...
तुमसे ना मिलके खुश रह पाएंगे,
वो दावा किधर गया...
दो रोज में गुलाब सा चेहरा उतर गया...
Wednesday, December 9, 2009
हंगर ज़ीरो
कल मानव अधिकार दिवस है।
हम कैसे इस दिवस को मना सकते हैं जब हम लोगों को दो जून की रोटी नहीं दे पाए हैं। इस निजाम ने तो इनसान के निवाले छीनने शुरू कर दिए हैं। दाल-रोटी के ही दाम आसमान चीरते जा रहे हैं। अधिकारों की बात तो तब हो, जब पेट भरा हुआ हो।
महंगाई का ग्राफ घर की लक्ष्मियों के ही प्राण हर रहा हो तो कल्पना कीजिए उस गरीब की जिसकी आय में कोई स्थिरता नहीं है।
सामर्थ्यवान मॉल्स-रेस्त्रा में हजारों रुपए का बिल भले ही चेहरे पर शिकन लाए बिना चुका देते हैं, लेकिन मेहनतकश को एक-एक रुपया भी माथे पर बल डालकर देते हैं, वह भी उसका पसीना सूखने के बाद...
अजमेर रोड के किनारे झुग्गी के बाहर बैठी सरिता को नहीं मालूम कि उसे आज रात का खाना नसीब होगा या नहीं। बढ़ती महंगाई ने आम आदमी का बजट तो बिगाड़ा है, साथ ही भीख मांगकर गुजारा करने वालों का निवाला भी छीन लिया है। सरिता कहती हैं कि अब लोग रोटी गिनकर बनाने लगे हैं। सब्जी भी उतनी बनाते हैं, जितनी जरूरत। बासी रोटी-सब्जी बचती नहीं और हमें खाली हाथ लौटना पड़ता है। सरिता जैसे न जाने कितने लोग आधा पेट भरकर संतोष करते हैं या किसी रोज भूखे पेट सोना भी उनकी मजबूरी है। कल मानवाधिकार दिवस है। जब तक देश का एक भी नागरिक भूखे पेट सोने पर मजबूर है, तब तक बाकी मानवाधिकारों की बात करना बेमानी ही है। 'दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओं' जैसे मुहावरे भी आज आम आदमी की पहुंच से दूर हो गए हैं, क्योंकि दालें अब 90 रुपए तक पहुंच गई हैं। चीनी के दोगुने हुए दामों ने आम आदमी की जिंदगी में बची मिठास भी गायब कर दी है। राशन कार्ड पर कुछ किलो दाल, चावल मुहैया करवाकर सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकती। हंगर जीरों और प्रत्येक नागरिक को सम्मान के साथ भोजन देने की घोषणाएं अभी दूर दिखाई देती हैं, लेकिन बढ़ती महंगाई ने आम आदमी को पेट काटने पर मजबूर कर दिया है। भीख मांगकर गुजारा करने वालों से लेकर बिजनेस क्लास फैमिली तक महंगाई के जैसे सवाल पूछे तो दर्द शब्दों में फूट पड़ा...
नहीं मिलता बासी खाना
दो बच्चों की मां अनुराधा परेशान है। कई दिन हुए घर का चूल्हा नहीं जला। भीख में रोटी की जगह आटा-दाल देने वाले लोग अब महंगाई के ताने देने लगे हैं। अनुराधा कहती हैं कि पहले रोटी नहीं मिलती थी तो घरों से मिले आटे से खुद खाना बनाकर पेट भरते थे पर अब लोग हमें आटे-दाल का भाव सुनाकर भगा देते हैं। खुद तो कभी भूखे भी रह सकते हैं, लेकिन छोटे बच्चों को तो खाना खिलाना ही है। मेरे पति गलियों में झूला चलाते हैं। अब लोग रोटी-सब्जी की बजाए एक-दो रुपए दे देते हैं पर इतने पैसों से खाने का कुछ भी नहीं मिलता। पंद्रह-बीस लोगों से मिली चिल्लर से आटा खरीद लें तो उसे पकाने व सब्जी की समस्या रहती है। घरों से कुछ नहीं मिलता तो मंदिर-गुरुद्वारे से मिल जाता है। दूध के भाव भी बढ़ गए हैं तो बच्चे का दूध कम कर दिया है। चीनी महंगी हुई तो अब नहीं खरीदते। प्रसाद में बताशे मिलते हैं, उन्हें कूटकर दूध में मिला देती हूं। कभी कोई सदस्य बीमार हो जाए तो आफत आ जाती है। दवाई खरीदने में ही जान निकल जाती है।
अब घर कैसे जाएं
चार साल पहले झारखंड से परिवार सहित जयपुर आकर बसी बसंती देवी घरों में बाई का काम करती हैं। पति चौकीदारी करते हैं। दो बेटे व दो बेटियां हैं। वे बताती हैं हम दोनों की कमाई से पहले मकान का किराया, बच्चों की पढ़ाई और घर खर्च चल जाता था, लेकिन बढ़ी महंगाई ने जैसे खुशियां ही छीन ली हैं। पहले हम सभी हर छह महीने बाद परिवार से मिलने झारखंड जाते थे, लेकिन अब इतनी बचत नहीं हो पाती कि घर जाने के लिए किराया जुटा सकें। इसी कारण अब तय किया है कि सालभर से पहले गांव नहीं जाएंगे। बेटे ने देखा कि महंगाई के कारण अब घर चलाना मुश्किल हो रहा है तो उसने पढ़ाई छोड़ दी। अब वह दवाई की फैक्ट्री में काम करता है। इससे कुछ आर्थिक मदद तो मिली पर उसकी पढ़ाई छूटने से मन बहुत दुखी है।
बच्चों की पढ़ाई में कटौती
हम दोनों पति-पत्नी झाड़ू-बुहारी करके तीनों बेटों को खूब पढ़ाने-लिखाने का सपना संजोए थे, लेकिन बढ़ती महंगाई ने परेशान कर दिया है। सफाईकर्मी सीमा डंगोरिया कहती हैं कि बेटों की परीक्षाएं नजदीक हैं तो सोचा था कि बच्चों को ट्यूशन दिलाऊंगी पर अब यह मुश्किल लगता है। डर है कि कहीं बच्चों की पढ़ाई बीच में ना रुकवानी पड़े। आटा, दाल, चीनी, सब्जी के भाव बढ़ने से रसोई पर संकट आ गया है। बाकी चीजों के बिना गुजारा हो सकता है, लेकिन रोटी खाए बिना तो नहीं रह सकते। सब्जी महंगी थी तो दाल-चावल से काम चलता था पर अब तो दालों के भाव भी आसमान छू रहे हैं। कीमतें बढ़ानी हों तो अमीरों के काम आने वाली चीजों की बढ़ाएं। वे लोग तो अपनी बचत व फालतू खर्च में कटौती कर सकते हैं, लेकिन गरीब दो वक्त की रोटी भी नहीं खाएगा फिर काम कैसे करेगा।
लौटना पड़ा काम पर
तीन साल पहले तक कीर्ति एक स्कूल में पढ़ाती थीं। मां बनने के बाद उन्होंने जॉब नहीं करने का फैसला किया। कीर्ति बताती हैं कि मैं अपना पूरा ध्यान बेटे की परवरिश पर देना चाहती थी, लेकिन महंगाई बढ़ने से घर का बजट बिगड़ने लगा था। बेटे का स्कूल में एडमिशन करवाया तो बढ़ती फीसों से सिर चकराने लगा। यहीं आकर मुझे अपना फैसला बदलना पड़ा और मैंने दोबारा जॉइन की। इससे बच्चे को कुछ कम टाइम दे पाती हूं, लेकिन अब जॉब करना बहुत जरूरी हो गया है। पति प्राइवेट जॉब में हैं। दोनों मिलकर मैनेज कर रहे हैं। मुझे हैरानी होती है कि मूलभूत आवश्यकताओं से जुड़ी चीजों के दाम बढ़ाकर आम आदमी का जीना दूभर क्यों किया जा रहा है। सरकार चाहे तो इलेक्टि्रक आइटस और लग्जरी चीजों के दाम बढ़ाए, ताकि आम आदमी पर असर नहीं पड़े।
मनोरंजन की छुट्टी
आर्थिक रूप से संपन्न होने का मतलब यह नहीं कि महंगाई बढ़ने से कुछ असर ही ना पड़े। सोसायटी के साथ खुद को अपडेट रखना जरूरी होता है, लेकिन महंगाई बढ़ने से मैनेज करना मुश्किल हो गया है। हाउसवाइफ रेणुका शर्मा बताती हैं कि रसोई महंगी हुई है, लेकिन छोटे बच्चे हैं और हेल्थ के साथ समझौता नहीं कर सकते, इसलिए खाने में कटौती नहीं की। पहल पूरी फैमिली हफ्ते में एक-दो मूवी देखती थी, वीकेंड पर घूमने निकलते थे, वहीं अब ऐसे मनोरंजन के खर्च कंट्रोल कर लिए हैं। पति बिजनेसमैन हैं। उनसे कहा है कि वे पॉकेटमनी बढ़ाएं।
Sunday, October 25, 2009
मदद करें...
कुछ सवाल परेशान करते हैं। उन्हीं में से एक है कि भगवान हैं या नहीं? कोई कहेगा कि हां हैं तो कोई कहेगा नहीं हैं। इसी आधार पर इनसानों के दो हिस्से हो जाएंगे-आस्तिक और नास्तिक। काफी लोगों से यह सवाल पूछा। हां बोलने वाले ज्यादातर लोगों से मेरा अगला सवाल था कि भगवान कहां हैं? सभी से एक ही जवाब मिला-'हमारे मन में।' मेरा अगला सवाल कि भगवान हमारे मन में हैं तो फिर मन दुखी क्यों होता है? जहां भगवान हैं, वहां दुख तो होना ही नहीं चाहिए। जितने जवाब मिले, उनमें से एक जवाब था-'भगवान हमारे मन में हैं। जब हम भगवान से ज्यादा किसी को मानने लगते हैं तो भगवान को दुख होता है। भगवान को दुख होता है तो हमारा मन भी दुख पाता है, क्योंकि मन में भगवान हैं।'
इस जवाब ने चेहरे पर हल्की मुस्कान तो ला दी, लेकिन संतुष्ट करने वाला जवाब अभी नहीं मिला। कुछ दिन भगवान के साथ बिताने की तमन्ना है। ऐसा हो सका तो कुछ दिन बाद शायद मैं इस सवाल का बेहतर जवाब दे सकूंगा। आपके पास इस सवाल का कारण सहित जवाब हो तो मदद करें...
Wednesday, September 9, 2009
बीवी बड़ी या ब्लॉग?
काफी वक्त पहले यूं ही हमसे किसी ने पूछा था कि अक्ल बड़ी या भैंस? मैंने भी वैसा ही जवाब दे दिया कि भैंस तो देखी है, जरा अपनी अक्ल के दर्शन करवा दें तो आपके सवाल को एकदम सही हल कर दूं। ...खैर, अब एक नई कहावत रचने का मन है-बीवी बड़ी या ब्लॉग? देखा तो सभी ने बीवी को भी है और ब्लॉग को भी, लेकिन जवाब सभी का अलग-अलग हो सकता है। इस पोस्ट को प्रकाशित करने की राजीव जैन जी ने सहर्ष अनुमति दे दी है। अपने राजीव जैन जी की 'शुरुआतं' (www.shuruwat.blogspot.com) कइयों को ब्लॉगिंग की दुनिया में लाने की प्रेरणा बनी है। ब्लॉगिंग की तकनीकी जानकारी के लिए आज भी राजीव जी का नाम ही सबसे पहले जुबां पर आता है। वैसे बात बीवी और ब्लॉग की हुई है तो इसका कारण भी अपने राजीव ही हैं। ब्लॉगिंग की दुनिया के चमकते सितारे होने के अलावा किसी जमाने में जी-टॉक पर भी वे चौबीस घंटे ऑनलाइन नजर आते थे। ऑरकुट मे 'अजब है जिंदगीं' टाइटल के साथ भी वे सक्रिय थे, लेकिन आजकल वे गायब-से रहने लगे हैं। स्कूलों में बच्चों का नया सेशन शुरू हुआ तो इन्होंने भी सोचा कि क्यों न अजब जिंदगी को सच्ची में अजब बनाने के लिए जिंदगी का नया सेशन शुरू कर लें। इस तरह एक जुलाई को राजीव जी बने दूल्हा और हो गई जिंदगी की नई शुरुआत। इस बीच छूट गया ब्लॉगर्स साथियों का साथ। कभी एक दिन में दो-दो पोस्ट लिखने वाले राजीव जी महीनेभर का गैप देने लगे हैं। तीस अगस्त को 'आज मैंने किराए पर दो रुपए ज्यादा दिए' लिखा। इससे ठीक एक महीना पहले उन्होंने तीस जुलाई को 'राजस्थान में हर आदमी आरक्षितं' पोस्ट लिखी थी और इससे पहले शादी के ठीक बीस दिन बाद ऑफिस लौटने पर कुछ लिखा तो नहीं पर एक मित्र के साथ हुई चैटिंग को ब्लॉगर्स से रूबरू करवाया था। अभी उनसे शादी की तारीख पूछी तो जवाब मिल गया, लेकिन सगाई की तारीख पूछी तो जरा सोचने के बाद वे बोले-याद नहीं, बीवी से पूछना पड़ेगा।
ये वही राजीव जैन हैं, जिन्होंने सभी ब्लॉगर साथियों को एक मंच पर लाने के लिए 'लिंक रोड' बनाई है। पहले फिल्म समीक्षा और हर छोटी-बड़ी घटना पर लिखने वाले राजीव जी ने शायद शादी के बाद कोई फिल्म भी नहीं देखी है। एक फिल्म देखते हुए उन्हें अक्षय कुमार की गर्दन के सफेद बाल तक नजर आ गए थे। शादी के बाद शायद कोई फिल्म उन्होंने देखी भी हो, लेकिन अब सफेद बाल या किसी और चीज पर उनकी टिप्पणी 'शुरुआत' पर नजर नहीं आई। अभी दो दिन पहले हमने ब्लॉग से नाराजगी का कारण पूछा तो उनके मुंह खोलने से पहले जैसे उनकी आंखें हॉकिंग्स विज्ञापन के अंदाज में बोल पड़ीं-'जो बीवी से करे प्यार, वो ब्लॉगिंग से करें इनकार...।' चलिए, बहुत हुआ। राजीव जी को शादी की बधाई दीजिए। चलते-चलते 'शुरुआत' पर मार्च से अब तक लिखी गईं पोस्टों पर एक नजर। देखिए, घंटों का अंतर महीने में कैसे बढ़ा...
7 मार्च: एक अच्छी हॉरर फिल्म है 13-बी
8 मार्च: चल बसा एक गुमनाम सांसद
16 मार्च: क्या किसी ने देखे हैं भूत?
18 मार्च: आमिर का नया गेटअप
21 मार्च: बाप रे, सत्तर हजार की जगह सात लाख रुपए
22 मार्च: सरेआम फांसी की सजा सुनाने वाले जज विदा
24 मार्च: बीमा एजेंटों के काम का सबूत हैं अखबार
1 अप्रेल: आज तो सही में गार्ड ने भगा दिया
1 अप्रेल: मुझे नहीं बनना टीवी पत्रकार
4 अप्रेल: एकदम पकाऊ तस्वीर, गले नहीं उतरती कहानी (समीक्षा)
9 अप्रेल: सिर्फ तस्वीरें और कैप्शन
12 अप्रेल: बाप रे, एक और मंदिर
14 अप्रेल: इतने डे क्या कम थे, जो मेट्रीमोनी-डे भी आ गया
18 अप्रेल: सर्किल नहीं, मौत का कुआं है
23 अप्रेल: असमंजस, क्या हम सही हैं?
27 अप्रेल: काश, ऑनलाइन मिलता खाना
6 मई: जयपुर की सड़क पर ये स्टंट
13 मई: जयपुर में विस्फोट के एक बरस बाद
15 मई: हर गलती सजा मांगती है
3 जून: आखिर बेच डाली छह सौ किलो रद्दी
21 जुलाई: शादी के बाद...(इस पोस्ट में सिर्फ चैटिंग को कॉपी-पेस्ट किया गया)
30 जुलाई: राजस्थान में हर आदमी आरक्षित
30 अगस्त: आज मैंने किराए पर दो रुपए ज्यादा दिए
Thursday, September 3, 2009
श्यामलाल को घर जाना है...
जब भी कोई किस्सा-कहानी किसी को सुनाता हूं तो अक्सर सामने से आवाज आती है कि ऐसा तुम्हारे साथ ही क्यों होता है...सभी लोग तुम्हे ही क्यों मिलते हैं? हर बार की तरह मेरा एक ही जवाब कि छोटी-छोटी बातों में कुछ बड़ा छिपा होता है। जरा-सा कुरेदकर देखो तो सब ओर कुछ किस्सा-कहानी है। इस कहानी का पात्र श्यामलाल है। श्यामलाल एक पेइंग गेस्ट हाउस में काम करता है। सभी को खाना सर्व करता है। हंसी-मजाक के साथ डांट भी सहन करता है। सब्जी में नमक कम-ज्यादा हो तो गलती कुक की, बर्तन पर परत जमी हो तो गलती बाई की, लेकिन सभी के हिस्से की डांट श्यामलाल के हिस्से में आती है। बावजूद इसके कभी चेहरे पर शिकन नहीं। वही फुर्ती और मुस्कुराहट बरकरार। अब मैं वह पेइंग गेस्ट हाउस छोड़ चुका हूं, लेकिन सुबह उठते ही श्यामलाल की आवाज 'भैया, नाश्ता कर लीजिए...' बहुत मिस करता हूं।
कुछ ही दिन पहले की बात है। एक साथी रिपोर्टर को कुछ लड़कियों के इंटरव्यू करने थे। अपने साथ पेइंग गेस्ट हाउस में ले गया। श्यामलाल को बुलाया गया। वह रिपोर्टर को लड़कियों के पास ले गया। रिपोर्टर को छोड़कर श्यामलाल मेरे पास आया और बोला-भैया, एक फोटो मेरा भी खींच दो।
मेरा जवाब-अभी सिर्फ लड़कियों के फोटो चाहिए। बाद में कभी देखेंगे।
श्यामलाल-नहीं, अखबार में फोटो नहीं छपवाना। घर भिजवाना है। सालों हो गए, घर गए। फोन आता है तो कहते हैं एक फोटो भेज दे।
मेरा जवाब-तो घर क्यों नहीं जा आते।
श्यामलाल-जाना है पर अभी कुछ पैसा और कमा लूं, फिर एक ही बार जाऊंगा।
श्यामलाल की ख्वाहिश पूरी हो, इससे पहले रिपोर्टर आती हैं। उन्हें जल्दी है और शायद कैमरे की बैटरी भी खत्म हो गई है। बाहर निकलते हुए दुखी महसूस करता हूं कि श्यामलाल की फोटो नहीं हो पाई। उसे आश्वासन देता हूं कि अगली बार जल्दी तुम्हारी फोटो करेंगे।
बड़ी-सी मुस्कुराहट के साथ श्यामलाल का जवाब-कोई बात नहीं भैया, जब कैमरा लाओ, तब फोटो कर देना...
(श्यामलाल हमेशा मुस्कुराता रहता है। फोटो का यह चेहरा श्यामलाल का नहीं, लेकिन शायद इसे भी घर जाना है...)
Wednesday, July 29, 2009
जवाब मिल गया है...
कुछ सवालों के जवाब खुद-ब-खुद मिल जाते हैं। स्वयं का अनुभव है कि कोई सवाल परेशान कर रहा हो तो भगवान से उसका जवाब मांगें। देर हो सकती है, लेकिन खुली या बंद आंखों में ख्वाब बनकर ऊपर वाला जवाब जरूर देता है। ...खैर, यह ख्वाब से जवाब का अनुभव कुछ व्यक्तिगत है, इसलिए नहीं बता सकता। हां, एक बहुत पुराने सवाल का हल शायद मिल गया है। लगभग दो महीने पहले बेस्ट फ्रेंड था तो एक छोटी-सी पोस्ट के जरिए सभी ब्लागर्स से यह जानने की कोशिश की कि दोस्ती है क्या? दुख हुआ कि बिना पढ़े टिपियाने की आदत से मजबूर बंधुओं ने ई-मेल और ब्लॉग पर टिपियाने की औपचारिकता पूरी की। नतीजतन, वह सवाल सिर्फ सवाल ही रह गया। अब इतवार को फ्रेंडशिप-डे है तो स्टोरी के लिए कुछ लोगों के इंटरव्यू किए। 'दोस्ती´ पर न जाने कितना कुछ सुनने के बाद भी यूं लगा कि जवाब नहीं मिल पा रहा है। डेली न्यूज की बुधवारीय पत्रिका 'खुशबू´ में संपादक वर्षा भंभाणी मिर्जा की पाती की कुछ पंक्तियों से जैसे जवाब मिल गया है। उस पाती का एक अंश कुछ यूं है...
...दोस्ती ऐसा अनूठा भाव है जो इस दुनिया को जीने लायक बनाता है। दोस्ती वह कंधा है, जो हर मुश्किल में मजबूत सहारा देता है। एक ऐसा दिल है, जहां आपकी सारी परेशानियां गहरे कुएं में दफन हो जाती है। ऐसा दिमाग है जो आपको तकलीफों के हल यूं सुझाता है जैसे कोई जादूगर अपने रुमाल से सफेद कबूतर निकालता है। यकायक भीतर से आवाज आती है कि ऐसा दोस्त आजकल मिलता कहां है...सब किताबी बातें हैं... मतलब के यार हैं सब... लेकिन क्या आपने कभी ऐसे दोस्त बनाने की कोशिश की है? किसी के आगे इतना समर्पण किया है? दोस्ती ऐसा ही समर्पण चाहती है। भक्त का भगवान के सामने जो समर्पण है, वैसा ही। अहं को त्याग जिस तरह एक सच्चा भक्त मंदिर में दाखिल होता है, वैसा प्रवेश अगर सखा के सामने हो तो मित्रता की सूरत कुछ और होगी। बेशक यह चयन आपका है...।
अब तक मिले जवाबों में मुझे यह बातें ज्यादा मन को छूने वाली लगी। किसी की राय इससे इतर भी हो सकती है। बिना पढ़े टिपियाने की बजाए कुछ और बेहतर बताएंगे तो अच्छा लगेगा। शुक्रिया...
Thursday, July 2, 2009
मैं सुधर गई हूं!
मेरे एक सहकर्मी की कॉलर ट्यून सुनिए-'आज की ताजा खबर...आओ काका जी इधर, आओ मामाजी इधर...ले लो दुनिया की खबर...´
'सन ऑफ इंडिया´ फिल्म का यह गाना पत्रकारों की कॉलर ट्यून के लिए एकदम फिट है। अखबार में काम करने वाला हर श�स (पत्रकार भी और गैर-पत्रकार भी) दुनिया की नजर में पत्रकार ही होता है। कोई मिलता है तो 'हाय-हैलो´ की जगह ताजा खबर पूछता ही दिखता है।
वैसे आज की ताजा खबर तो सभी को मालूम ही है। भारत में समलैंगिकों को कोर्ट की मंजूरी से कुछ पत्रकारों को भी मुसीबत झेलनी पड़ी। मेट्रो सिटिज को छोड़ें तो छोटे शहरों में ऐसे विषयों पर खबर लिखने वाले को भी तीखी नजरों का सामना करना पड़ता है। लगभग दो साल पहले लेस्बियन पर स्टोरी के दौरान मैंने एक समलैंगिक लड़की का फोटो सहित इंटरव्यू किया था। आज जैसे ही इसी टॉपिक पर खबर के आदेश हुए, सभी की नजर अपन की ओर दौड़ी। 'यार, कोई समलैंगिक का नंबर दो...´ पहले तो मैं सकपकाया, फिर दो साल पुरानी बात भी याद आई। तब कोम्प्लिमेंट कम और कमेंट ज्यादा मिले थे। खैर...उसी लेस्बियन लड़की को फोन घुमाया, जिसका इंटरव्यू किया था। ताजा खबर सुनाई तो उसके मुंह से निकला-'वाउ...´। मैंने कहा, इंटरव्यू दोगी? जवाब मिला-नहीं, अब तो मैं सुधर चुकी हूं। लड़कों में इंट्रेस्ट लेना भी शुरू कर दिया है।
'सुधर गई हूं´ जवाब सुनकर यह एहसास तो हुआ कि कहीं-न-कहीं ये लोग भी स्वीकार तो करते हैं कि समलैंगिता 'बिगड़ेपन´ की निशानी है। टाइम थोड़ा आगे बढ़ा। हमारी रिपोर्टर ने इसी टाइप की एक और लड़की को फोन घुमाया। उसने उलटे रिपोर्टर का इंटरव्यू ले डाला। आखिर में 'अब मैं वैसी नहीं रही हूं। चोटी भी बनाने लगी हूं...´ और सॉरी कहकर फोन रख दिया। रिपोर्टर ने जैसे-तैसे इसी मुद्दे पर एक अलग एंगल से स्टोरी तैयार की। विज्युअल के लिए डिजाइनर के पास गई तो वहां भी हंसते हुए मेरी ओर इशारा कर दिया गया। अपन को हंसी के साथ खूब गुस्सा भी आया। एक स्टोरी क्या लिख दी। अपन को समलैंगिक लोगों का स्पेशलिस्ट राइटर मान लिया गया कि फोटो, कॉन्टेक्ट, मैटर...सब मेरे पास उपलब्ध हो।
कुछ देर बाद रिपोर्टर से पूछा-कैसी रही स्टोरी? जवाब मिला-पसीना आ गया। सवाल पूछने वाले को भी शक की नजर से देखते हैं।
उनकी बात से महसूस हुआ कि ऐसे मुद्दे पर बायलाइन मिलना किसी पाप से कम नहीं। आज की खबर से मानवाधिकार दिवस पर छपी मेरी एक स्टोरी का भी खयाल आया। किन्नरों पर की वह स्टोरी 'खंडित वजूद´ जितनी पसंद की गई, उससे ज्यादा नेगटिव कमेंट भी मिले। 'हम हिजड़ों की स्टोरी नहीं पढ़ते...´ ऐसे कमेंट भी हुए। थोड़ा गुस्सा आया, लेकिन किन्नरों के इंटरव्यू के दौरान कही बात याद आई कि किन्नरों से नफरत करने वाले लोग भूलें नहीं कि लैंगिक विकलांग संतान तो किसी को भी पैदा हो सकती है। ऐसे कमेंट करने वालों को भी। तभी एक किन्नर ने दुख जताते हुए यह भी कहा था कि समलैंगिक लोगों के प्रति तो हमदर्दी जताई जा रही है, जबकि उन्हें भगवान ने स्त्री या पुरुष रूप में संपूर्ण भेजा है। उनकी विकृति तो मानसिक है। उन्हें इलाज की जरूरत है। किन्नरों की विकलांगता लैंगिक है और जन्म से भी, जिसमें उनका कोई दोष नहीं। क्यों सभी उनसे नफरत और भय का भाव रखते हैं। ...जवाब देंगे?
Friday, June 26, 2009
अमर प्रेम की गजब कहानी...
मेरी पहचान का एक शख्स अपने प्रेम को 'अमर प्रेम´ कहता है। साथ पढ़ने वाली एक लड़की प्यार को सिर्फ टाइमपास बताती है। एक वरिष्ठ प्रेम को खुदा का दूजा रूप मानती हैं। ऐसे लोग भी देखे हैं, जो तू नहीं कोई और सही...पर चलते हैं। खुद की बात करूं तो अपने जीवन के तेइस बरसों में हर रोज प्रेम को अलग रूप में देखा है। अभी-अभी एक खबर सुनी कि मेरे शहर (श्रीगंगानगर) की उस लड़की ने दम तोड़ दिया, जिस पर कुछ रोज पहले उसके इकतरफे प्रेमी ने तेजाब फेंक दिया था। कितने ऐसे किस्से आए रोज सुनने को मिलते हैं। 'मैं तुम्हे भूल जाऊं, ये हो नहीं सकता और तुम मुझे भूल जाओ, ये मैं होने नहीं दूंगा...´ एक फिल्मी डायलॉग जबान पर है। क्यों भई, जबरदस्ती है क्या।
बहुत छोटा था, तब यही मानता था कि मां-बाप के अलावा किसी से प्रेम हो ही नहीं सकता। कुछ बड़ा हुआ। फिल्मी प्रेम को महज काल्पनिक माना। फिल्में देख खूब हंसता था कि यूं भी भला कोई किसी एक के लिए दुनिया भुलाने की बात कर सकता है। कुछ और बड़ा हुआ तो प्रेमी परिंदों को देख महसूस हुआ कि फिल्मी किस्से हकीकत में भी होते हैं। खुद को पहला प्यार हुआ तो बहुत मीठा एहसास लगा। प्यार में असफल रहा तो यही प्यार जहर लगने लगा। सोच लिया कि अब किसी से दिल नहीं लगाना। कुछ मजबूरियां और जरूरतें घर से दूर बड़े शहरों में खींच लाई। यहां तो प्रेमी जोड़े इस तरह घूमते नजर आए, जैसे छोटे शहरों में इतवार को सब्जी मंडी में लगी भीड़। बड़े शहरों के लोगों से संपर्क हुआ। उनके प्रेम के किस्से सुने। 'अमर प्रेम´ कहने वाले शख्स का प्यार एक नहीं, दो नहीं, लंबी चेन के साथ बारी-बारी प्रेम रूपी पींगें झूल रहा था। प्रेमी-प्रेमिका का रोना-धोना, घूमना-फिरना, खाना-पीना सब तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार जारी था ही। अमर प्रेम की ऐसी गजब कहानियां देख अच्छा नहीं लगा। अब तक मैं पार्ट लाइम और फुल टाइम लवर का ट्रेंड भी देख चुका था। बहुत-से लोग लव मैरिज की ख्वाहिश रखते हैं। मैं भी उनमें एक था। हालत ये हुई कि किसी ने दो रोज हंसकर बात कर ली, मुझे उसी के ख्वाब आने लगते। किसी को आज तक कह नहीं सका और अब तक जिनसे हंसमुख बातचीत है, ऐसा लगता है कि उन्हें मुझसे प्यार है, लेकिन मेरे मुंह से कहलवाने की चाह है। इजहार का क्या है, मैं खुद ही कर दूं, लेकिन उनके दिल की बात जानूं कैसे! कई बार तो अपने बड़बोले व्यवहार के कारण भरी महफ़िल में साफ़-साफ़ कह भी दिया-'कोई भी मुझसे दो दिन ढंग से बात करे तो तीसरे दिन थोडा लडाई-झगडा कर मेरा भ्रम तोड़ दे कि ये मोहब्बत नहीं है...'
प्यार क्या है, इस सवाल के जवाब में कई किताबें पढ़ डाली। बहुत लोगों से पूछ डाला। आखिर में इसी परिणाम पर पहुंचा कि जहां विश्वास टूटने की गुंजाइश नहीं, किसी के आंसुओं का कारण बनना नहीं, भरपूर समर्पण भाव...शायद यही प्यार है। फिर भी मैं तो अब तक कन्फ्यूज हूं। अब तक का निचोड़ यही कि अपने तो अपने होते हैं...बाकी आप यार-दोस्त, सगे-संबंधियों, जानने-पहचानने वालों के लिए लाख अपनापन दिखा दो, जान लुटा दो, मिलती ठोकर ही है...खैर, कोई बताने वाला हो तो बता दे कि ये प्रेम होती क्या बलां है...
चलते-चलते कुछ लाईने अर्ज हैं...लिखने वाले का नाम नहीं जानता, लेकिन लिखा बहुत खूब इसलिए सलाम करता हूँ...
पता नहीं क्यूँ उसके वादे पर करार रहा,
वो झूठा था पर उसपे मुझे ऐतबार रहा!
दिन-भर मेहनत ने मुझे दम ना लेने दिया
और फिर रात भर दर्द मुझसे बेहाल रहा!
Thursday, June 18, 2009
पापा कहते हैं...
पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा...लेकिन जब वे ऐसा ज्यादा ही कहने लगते हैं (खास तौर पर मेरे सामने) तो जाने क्यों खीझ उठता हूं। किसी से भी मिलवाते वक्त मेरा परिचय देने का उनका अंदाज मुझे जरा भी नहीं भाता। बहुत बार तो कह भी जाता हूं-'पापा, मैं अभी इतना बड़ा नहीं हुआ।´ उनका जवाब होता है-'ऐसे कैसे नहीं हुआ। तेरे लेख पढ़कर सब मुझे बधाई देते हैं तो...'
हमेशा उनकी बात बीच में ही काट देता हूं-'बस आप रहने दो। मुझे नहीं पसंद यह सब।'
ऐसी नोक-झोंक आए दिन की बात है, लेकिन मुझे याद नहीं कि मैंने कोई काम कहा हो और उन्होंने ना बोला हो। बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि काम उनके बस की बात नहीं होता, फिर भी वे पुरजोर कोशिश तो करते ही हैं।
कुछ रोज पहले फादर्स-डे पर स्टोरी तैयार करने के आदेश हुए। पहले से ही कुछ स्टोरीज पर काम कर रहा था। इतने बिजी शेडयुल में परेशान हो उठा। पापा को बताया कि ऐसे पिता ढूंढने हैं, जिन्होंने सब्जी बेची हो, रिक्शा चलाया हो ऐसा ही कुछ मेहनत-मजदूरी भरा काम कर अपने बच्चे को अफसर बना दिया हो। मेरा कहना था और उन्होंने अपना काम शुरू कर दिया। दो दिन में ऐसे चार बाप-बेटों के इंटरव्यू उन्होंने करवा दिए। स्टोरी सब्मिट करवाने का आखिरी दिन आया। कुछ फोटोग्राफ पापा ने नहीं भेजे थे। उन्हें फोन कर रहा था, लेकिन वे रिसीव नहीं कर रहे थे। झुंझलाहट और गुस्से में मैंने घर फोन किया। मम्मी से पूछा-'पापा कहां हैं? मुझे डांट पड़ेगी। उन्होंने अब तक फोटो नहीं भेजे...'
मैं बोलता जा रहा था। बमुश्किल सांस लेने को चुप हुआ तो मम्मी बोलीं-'फोन आया था कि खाना खाने नहीं आ पाएंगे। तेरी स्टोरी के फोटो खींचने गए हैं।'
इतना सुनते ही मेरी बोलती बंद हो गई। इसी बुधवार को जब यह स्टोरी प्रकाशित हुई तो जबरदस्त रेस्पोंस मिला। कुछ सेलिब्रिटिज के इंटरव्यू भी मैंने फोन पर किए थे। मुझे उम्मीद थी कि इसका रेस्पोंस ज्यादा मिलेगा, लेकिन पापा की मेहनत से पूरी हुई स्टोरी को पत्रिका के कवर पर जगह मिली। बहुत खुश था। पापा को शुक्रिया कहने के लिए फोन किया। वे बोले-'कंप्यूटर से अपने आप कैसे तुहें फोटो पहुंच जाती है? जब घर आएगा तो मुझे भी ई-मेल करना सिखाना।' बात पूरी होती, इससे पहले पापा के कोई परिचित आ गए। ई-मेल भूलकर वे उनसे बतियाने लगे-'ये देखो, बेटे के दो लेख एकसाथ छपे हैं। बड़ा लेखक बन रहा है। फिल्म स्टार्स से भी बात करता है...'
फोन चालू था। उनकी बातें सुनकर मुझे फिर गुस्सा आ रहा था। मन कर रहा था कि उन्हें कह दूं कि 'पापा, मैं अभी इतना बड़ा नहीं हुआ...´, लेकिन वे बहुत खुश थे, इसलिए कुछ कह न सका...
Sunday, June 14, 2009
सांभर वड़े और थोड़ा-सा प्यार
पेइंग गेस्ट हाउस में शिफ्ट हुए अभी एक महीना ही हुआ है। अंकल-आंटी की कृपा से बढ़िया खाना तो नसीब हो ही रहा है, लेकिन साथ रहने वाले कुछ जवानों की बातों से दिल भी बाग-बाग रहने लगा है। टेलीफोनिक प्रेमी तो सुबह जगने से लेकर रात को सोने तक नजर आते ही हैं, लेकिन आज नाश्ते के वक्त तो यूं लगा जैसे किसी ने दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। डाइनिंग रूम में थे कि श्यामलाल (हमें खाना परोसने वाले साहब) सांभर वड़े और शेक के साथ हाजिर हुए। उन्होंने पांच-पांच वड़े परोसे1 अपन के छोटे-से पेट के लिए तो वो पांच वड़े काफी थे, लेकिन साथ बैठे एक जनाब बोल पड़े-'इससे क्या होगा?' कहते हैं कि सच्चे प्यार में दर्द की पुकार दूर तक जाती है। उन्होंने बोला और ये दर्द साथ के गर्ल्स पीजी हाउस में उनकी मित्र तक पहुंच गया। फोन की घंटी बजी। वे जनाब बाहर निकले और चेहरे पर प्यारी मुस्कान के साथ एक बड़ा प्याला लेकर तुरंत वापस आ गए। प्याले में बड़े ही खूबसूरत अंदाज में सांभर वड़े और ऊपर नारियल की चटनी सजी थी। उनकी खुशी और मुस्कराहट को जैसे मेरी बात ने कम कर दिया। मैंने पूछा-'श्यामलाल तो यहीं है फिर ये वड़े...?´ जवाब मिला-'वो...वो..वो...मेरी फ्रेंड इसी पीजी में रहती है। उसे वड़े पसंद नहीं, सो...´
आगे उन्हें कुछ बोलने की जरूरत नहीं थी। खुद-ब-खुद उनकी भावना अपन समझ गए थे, फिर वड़ों पर प्यार-से सजाई नारियल चटनी भी तो इजहार कर रही थी। मैं सोच रहा था कि काश, कोई हमारे लिए भी यूं ही नारियल चटनी...
आगे कुछ सोच पाता, इससे पहले भगवान ने मेरी भी सुन ली। श्यामलाल जी नारियल चटनी के साथ डाइनिंग रूम में प्रवेश लाए और मुस्कुराते हुए बोले-आपके लिए चटनी तो मैं भूल ही गया था।
Subscribe to:
Posts (Atom)