Saturday, April 11, 2009
रिटायरमेंट कब?
कभी-कभी एक फोटो इतना कुछ कह जाता है, जितने हजार शब्द भी नहीं कह पाते। यह बात किसी किताब में पढ़ी थी, लेकिन कभी-कभी कुछ पल ऐसा महसूस करवाते हैं, जो हजार शब्द या फोटो भी नहीं कह पाते। काफी दिन पहले जवाहर कला केंद्र की सुरेख कला दीर्घा (जयपुर) में फोटो एग्जिबिशिन देखने का मौका मिला। `शहर बनाम संवेदनां नामक इस एग्जिबिशिन के रूप में राजस्थान विश्वविद्यालय के जर्नलिज्म स्टूडेंट्स का पहला प्रयास काफी अच्छा रहा था। एग्जिबिशिन में कुछ फोटो ऐसे भी थे, जो शायद सवाल कर रहे थे कि वे किसी नेता, लेखक या पत्रकार की नजर से दूर क्यों रहे।
जाते हुए विजिटर बुक में टिप्पणी लिखी तो उन फोटोग्राफ्स की छोटी-छोटी कतरनों से सजा एक ब्रोशर भी साथ ले लिया। बाहर आकर रिक्शा किया। रास्ते में ब्रोशर देखते हुए नोट किया कि काफी फोटो उसी सड़क (जेएलएन मार्ग) से खींचे गए थे, जहां से मैं गुजर रहा था। `देवी मां की खंडित प्रतिमां, `खिलौने बेचते गरीब बच्चें, `सड़क किनारे का नजारां और भी बहुत कुछ जो एग्जिबिशिन में देखा था, उसी का लाइव टेलीकास्ट देख रहा था। रिक्शा अपनी गति से चल रहा था। घर पहुंचने में कुछ ही फासला था कि अचानक मेरी नजर रिक्शा चलाने वाले पर आकर ठहर गई। महज संयोग ही था कि जिस रिक्शा में मैं बैठा था, उसे चला रहे बूढ़े आदमी का फोटो भी एग्जिबिशिन में था। इसे क्लिक किया था सविता पारीक ने। ब्रोशर में फोटो छोटा था और पीछे से मैं उस आदमी की शक्ल भी ठीक से नहीं देख पा रहा था। रिक्शे से उतरा तो ब्रोशर दिखाते हुए पूछ ही लिया-`ये फोटो आपका है? जवाब मिला-`हां, काफी रोज पहले कुछ बच्चों ने खींचा तो था। यह फोटो था खूब बोझ ढोए हुए एक बूढ़े रिक्शा वाले का। कैप्शन लगा था-`रिटायरमेंट कब? मन हुआ कि उस बूढ़े आदमी से ही पूछ लूं कि उनका रिटायरमेंट कब, लेकिन मेरे किसी और सवाल का जवाब देने तक वे वहां से जा चुके थे। उन्होंने तो इस बात में भी दिलचस्पी नहीं दिखाई कि उनका फोटो कहां छपा है? दिलचस्पी होती भी क्यों, जहां पेट के लिए आदमी ही आदमी को ढोने पर मजबूर हो, वहां गरीब आदमी का रिटायरमेंट सांसें थमने पर ही होता है।
अपनी यही फीलिंग्स कल एक परिचित के साथ बांट रहा था। उसने एक ऐसी बात बताई कि आंखें नम हो गई। दोनों घटनाओं का पात्र एक बुजुर्ग रिक्शाचालक ही है। मेरे परिचित ने बताया कि कुछ साल पहले बीच सड़क एक रिक्शाचालक का शव मिला। उसके हाथ में दस रुपए का नोट था। अपने रिक्शा में किसी सवारी को ढोते हुए अचानक गश खाकर गिरे उस बूढ़े की सुध किसी ने नहीं ली। रिक्शा पर सवार आदमी ने भी उस बूढ़े के हाथ में किराया थमाया और चलता बना। शायद वो किसी गरीब का हक नहीं रखना चाहता था। बूढ़ा मरा है या सिर्फ बेहोश हुआ है, ये देखने की जहमत कौन उठाता। उस रिक्शाचालक की सांसें थम गई थी। यही उनके रिटायरमेंट का वक्त था और हाथ में दस रुपए का नोट उनकी पेंशन...।
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16 comments:
बहुत मार्मिक प्रसंग प्रस्तुत किए हैं। सही बात तो यही है कि यह पेट की भूख कभी किसी गरीब को रिटायर होने देगी क्या?
बहुत ही मार्मिक कहानी है
लिखते रहो
अस्सी प्रतिशत लोग की यही कहानी रोज।
सभी सुमन से कह रहा कोई राह तो खोज।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
स्वागत है...शुभकामनायें.
और एक हम हैं जो जवानी से ही रिटायरमेंट प्लानिंग कर रहे हैं, पर उनका क्या जो जिंदगी से रिटायर होने के बाद ही रिटायर हो पाते हैं, बिल्कुल नब्ज पकड़ी है आपने।
Very snsitive views ,most required in present situation.Very well discribed my dear.My regards
Dr.Bhoopendra
छोटे किंतु सम्वेदन शील आलेखों को पढ़ कर अच्छा लगा । बस्तुत: ऐसी पत्रकारिता ही देश को बचा सकती है । रिटायर मेंट कब , लेडिस टेलर के सपने ,लड़की होने का फ़ायदा,बो तो रांड है ,गुलाब ज्यादा बिके या कंडोम ,वो तो काली है ,हम पागल ही अच्छे ,मम्मी बहलाना फुसलाना क्या होता है ?
यहसब पढा ,इन पोस्ट्स में समाचार भी है ,उसका विश्लेष्ण भी .और साथ ही एक दिशा बोधक टिप्पणी भी ,
आपके यह पोस्ट समाचार पत्रों के माध्यम से आमजनता तक पहुचना चहिये ।
हिन्दी ब्लॉग की दुनिया में आपका तहेदिल से स्वागत है....
ब्लॉग की साज -सज्जा काबेले तारीफ़ है.
लिखेते रहिएगा........
राजीव महेश्वरी
swagat hai mitr
achha chitr hai
अच्छा लिखा है आपने , इसी तरह अपने विचारों से हमें अवगत करते रहे , हमें भी उर्जा मिलेगी
धन्यवाद
मयूर
अपनी अपनी डगर
जीवन की हकीकत को नफासत के बयान करना आपकी विशेषता है, बधाई स्वीकारें।
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तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
deepu cha gaye.. sanvednaen bachee rahen. shubhkamnaen.
Shukriya
बहुत बढ़िया! ऐसे ही लिखते रहिये!
मार्मिक प्रसंग
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