कभी-कभी ज़िन्दगी में हम ऐसे दौर से गुज़रते हैं, जब सवाल तो बहुत सारे होते हैं, लेकिन उनका जवाब लाख कोशिशों बाद भी नही मिलता। ऐसा ही एक सवाल काफी वक्त से मुझे परेशान किए है। कुछ ख़ास लोगों को अपने दिल का हाल कहा तो जवाब में ख़ुद को पागल, सनकी और न जाने क्या-क्या सुनना पडा।
दरअसल मेरी माँ और मेरे बीच मौत के ख्याल से में डरने लगा हूँ। ऐसा एकदम से नही हुआ, बल्कि पिछले डेढ़ साल में मेरी ज़िन्दगी में हुई दो अलग-अलग घटनाओ से हुआ। मार्च 2००६ की बात है। एक नए शख्स से मेरी दोस्ती हुई। मेरे इस दोस्त की मम्मी को गुज़रे काफ़ी वक्त हो चुका है। जयपुर में अकेला था, इसलिए कभी-कभी इसी दोस्त के घर जाने लगा। पहली बार जब में अपने इस दोस्त के घर गया तो वहां माँ की कमी को मैंने दिल से महसूस किया। सब-कुछ होने के बावजूद वहां जैसे कुछ नही था। रात भर सो नही पाया। इक अजीब सा डर मुझे खाए जा रहा था। पता नही क्यूँ मेरा मन मुझे उस दोस्त की जगह ख़ुद को रखने के बारे में सोचने के लिए मजबूर करने लगा था। मेरी माँ मुझसे दूर हो जाए ...ऐसा सोचना ही मेरी आँखों में पानी ला देता है। भगवान् कभी मुझे ऐसा दिन न दिखाए। अब तो बस हर रोज़ पूजा में भगवान् से यही मांगने लगा था। दुआ करता था की मेरी माँ से पहले मुझे मौत मिले ताकि मुझे अपने दोस्त की जगह कभी होना ही न पड़े।
इसी डर के साथ ज़िन्दगी चल रही थी की मेरे मकान मालिक का ४० साल का बेटा चल बसा। उसके जाने का दुःख मुझे रत्ती भर भी नही था। आधी रात को उठकर अपनी माँ को गालियाँ देने वाले आदमी को तो मार देना चाहिये, लेकिन एक माँ के लिए उसकी औलाद कितनी अहमियत रखती है, ये दूसरो के लिए समझ पाना बहुत मुश्किल है। बेटा चला गया था लेकिन उसकी मौत वाली रात को भी दिए की कम होती लो उस माँ को बेचैन किए थी। उस माँ ने गरम दिया हाथ में लिया और उसे बुझने से बचा लिया। उस माँ की नज़र में एक अपशगुन होने से बच गया। कितनी अजीब बात है, मौत से बडा अपशगुन और क्या होगा? लेकिन ये माँ की भावना है और इसे एक माँ ही समझ सकती है। उस दिन के बाद मैंने एक माँ को रोज़ रोते हुए देखा। में भी आपका बेटा ही हूँ...जैसा दिलासा देने की हिम्मत भी में नही जुटा पाया।
कुछ दिन पहले में माँ के बिना ख़ुद के बारे में सोच कर डर जाता था, लेकिन बेटे के जाने के बाद उस माँ का हाल देखकर जैसे मैं ख़ुद से नफरत करने लगा था। मैं भगवान् से अपनी माँ से पहले ख़ुद की मौत मांगने लगा था, ताकि मुझे बिना माँ के होने वाली तकलीफ से न जूझना पड़े। ख़ुद के बारे में ही सोचा...भूल बैठा की उसके बाद माँ का क्या होगा? अब जब बेटे की मौत के बाद एक माँ का हाल देखा तो उस माँ की जगह अपनी माँ का ख्याल आते ही दिल कांप उठा।
आज भी मन अजीब असमंजस में है। पहले मौत किसकी होगी-माँ या मेरी...? हालाँकि जो होना है वो तो होकर रहेगा। मौत एक दिन आयेगी ही, लेकिन चाहकर भी ये बुरा ख्याल मन से निकाल नही पा रहा हूँ। जाने क्या होगा...काश, ऐसा हो की मेरी माँ और मेरी मौत की घड़ी एक हो, ताकि दोनों उस दर्द से बच जायें, जिसकी कल्पना भी इतनी भयानक है। काश ऐसा हो जाए...
दरअसल मेरी माँ और मेरे बीच मौत के ख्याल से में डरने लगा हूँ। ऐसा एकदम से नही हुआ, बल्कि पिछले डेढ़ साल में मेरी ज़िन्दगी में हुई दो अलग-अलग घटनाओ से हुआ। मार्च 2००६ की बात है। एक नए शख्स से मेरी दोस्ती हुई। मेरे इस दोस्त की मम्मी को गुज़रे काफ़ी वक्त हो चुका है। जयपुर में अकेला था, इसलिए कभी-कभी इसी दोस्त के घर जाने लगा। पहली बार जब में अपने इस दोस्त के घर गया तो वहां माँ की कमी को मैंने दिल से महसूस किया। सब-कुछ होने के बावजूद वहां जैसे कुछ नही था। रात भर सो नही पाया। इक अजीब सा डर मुझे खाए जा रहा था। पता नही क्यूँ मेरा मन मुझे उस दोस्त की जगह ख़ुद को रखने के बारे में सोचने के लिए मजबूर करने लगा था। मेरी माँ मुझसे दूर हो जाए ...ऐसा सोचना ही मेरी आँखों में पानी ला देता है। भगवान् कभी मुझे ऐसा दिन न दिखाए। अब तो बस हर रोज़ पूजा में भगवान् से यही मांगने लगा था। दुआ करता था की मेरी माँ से पहले मुझे मौत मिले ताकि मुझे अपने दोस्त की जगह कभी होना ही न पड़े।
इसी डर के साथ ज़िन्दगी चल रही थी की मेरे मकान मालिक का ४० साल का बेटा चल बसा। उसके जाने का दुःख मुझे रत्ती भर भी नही था। आधी रात को उठकर अपनी माँ को गालियाँ देने वाले आदमी को तो मार देना चाहिये, लेकिन एक माँ के लिए उसकी औलाद कितनी अहमियत रखती है, ये दूसरो के लिए समझ पाना बहुत मुश्किल है। बेटा चला गया था लेकिन उसकी मौत वाली रात को भी दिए की कम होती लो उस माँ को बेचैन किए थी। उस माँ ने गरम दिया हाथ में लिया और उसे बुझने से बचा लिया। उस माँ की नज़र में एक अपशगुन होने से बच गया। कितनी अजीब बात है, मौत से बडा अपशगुन और क्या होगा? लेकिन ये माँ की भावना है और इसे एक माँ ही समझ सकती है। उस दिन के बाद मैंने एक माँ को रोज़ रोते हुए देखा। में भी आपका बेटा ही हूँ...जैसा दिलासा देने की हिम्मत भी में नही जुटा पाया।
कुछ दिन पहले में माँ के बिना ख़ुद के बारे में सोच कर डर जाता था, लेकिन बेटे के जाने के बाद उस माँ का हाल देखकर जैसे मैं ख़ुद से नफरत करने लगा था। मैं भगवान् से अपनी माँ से पहले ख़ुद की मौत मांगने लगा था, ताकि मुझे बिना माँ के होने वाली तकलीफ से न जूझना पड़े। ख़ुद के बारे में ही सोचा...भूल बैठा की उसके बाद माँ का क्या होगा? अब जब बेटे की मौत के बाद एक माँ का हाल देखा तो उस माँ की जगह अपनी माँ का ख्याल आते ही दिल कांप उठा।
आज भी मन अजीब असमंजस में है। पहले मौत किसकी होगी-माँ या मेरी...? हालाँकि जो होना है वो तो होकर रहेगा। मौत एक दिन आयेगी ही, लेकिन चाहकर भी ये बुरा ख्याल मन से निकाल नही पा रहा हूँ। जाने क्या होगा...काश, ऐसा हो की मेरी माँ और मेरी मौत की घड़ी एक हो, ताकि दोनों उस दर्द से बच जायें, जिसकी कल्पना भी इतनी भयानक है। काश ऐसा हो जाए...
4 comments:
mubarak ho. ab isi tarah apni soch ko shabd dete raho.
लिखो लिखते रहो..लगे कि ऋग्वेद की ऋचाओं की रचनाभूमि प्राचीन सरस्वती नदी के क्षेत्र से हो ..शुरुआत तो अच्छी है..लिखो कि गर्व करूँ या ईर्ष्या से जल जाऊं..अनंत शुभकामनाएं
bahut badhiya mere paas kahne k liye shabd nahi hain
good dipu,
nice story.
Post a Comment