
दीवाली थी तो चौकीदार, सफाईकर्मी जैसे बहुत-से ऐसे लोगों के दर्शन होने भी लाजिमी थे, जो सालभर नजर नहीं आते। सुबह-सुबह कूड़ा इकट्ठा करने वाली गधागाड़ी गली में आई। (उस गाड़ी को जोतने वाली गधी थी, इसलिए उसे गधीगाड़ी भी कह सकते हैं।) मैं कूड़े से भरी बाल्टी लेकर बाहर गया तो पड़ोस की आंटी कूड़ा डालकर गधी पर हाथ फेरकर बोलीं-`हाय सहेली, कैसी है?´ मैंने भी पूछ लिया-`ये गधी आपकी सहेली कैसे?´आंटी जी भी तपाक से बोलीं-`...और क्या। ये बेचारी दिनभर गलियों में जुतती है और हम घर के कामकाज में। हुई न हमारी सहेली।´
हालांकि आंटी अपनी बात कहकर मुस्कुरा दीं, लेकिन उनके जवाब में हंसी के साथ दर्द भी छुपा था। उनका चेहरा जैसे कह रहा था कि गृहिणी सुबह से लेकर देर रात तक चाहे कितना भी काम क्यों न कर ले पर वर्किंग वीमन की तुलना में उन्हें कम ही आंका जाता है। ...खैर जाने दीजिए, क्योंकि छोटे-छोटे शहरों की ऐसी बहुत-सी छोटी-छोटी बातें बड़े-बड़े सवालों के जवाब तलाशती नजर आती है।
2 comments:
बिल्कुल ठीक बात !
स्टोरी को सामाजिक पीडा का रूप देकर सिंपल बनाने के बजाय अच्छा-सा व्यंग्य लिख सकते थे..
फिर भी घटना मजेदार है...
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