Wednesday, December 10, 2008

खंडित वजूद



जब दृष्टिहीन, मूक-बधिर, अपंग, यहां तक कि मानसिक रूप से विकलांग को भी जीने का बुनियादी हक है तो फिर लैंगिक विकलांग को क्यों नहीं? क्यों पैदा होते ही वे अमानवीय परिस्थितियों में धकेल दिए जाते हैं? ब्रह्मचर्य का आदर करने वाले समाज में लिंग इतना महत्वपूर्ण क्यों? क्यों ये तबका खंडित वजूद के साथ जीने को मजबूर है।


एक ओर तो हम इनसे कन्नी काटते हैं, वहीं दूसरी ओर ये विश्वास भी करते हैं कि इनकी दुआओं और बद्दुआओं में गजब का असर है। मानो ये मनुष्य न होकर कोई दैवीय शक्ति हों। लैंगिक विकलांग (जिन्हें ज्यादातर
लोग हिजड़ा या किन्नर कहते हैं) जन्म से लेकर मृत्यु तक संघर्षों का सामना करते हैं। समाज के उपेक्षित व्यवहार के साथ ही इन्हें अपनों की ज्यादती का शिकार भी होना पड़ता है। जाने-अनजाने हमारे मन में इनके प्रति घृणा और भय के अलावा कोई और भाव आता ही नहीं है। लैंगिक विकलांगों से रूबरू होना चाहा तो काफी मुश्किल हुई। कहीं इन्हें अपने गुरु की इजाजत नहीं मिली तो कहीं ऐसे जवाब सुनने को मिले-`इतने साल जिंदगी ढो ली, आगे भी ढो लेंगे। पढ़ना-लिखना नहीं जानते तो इंटरव्यू देकर क्या करेंगे? वर्षों पुरानी परंपराएं यूं टूटती हैं क्या?´ काफी मान-मनोव्वल करने पर बड़ी मुश्किल से दो मिलने को तैयार हुईं। इन्हें चाय पर आमंत्रित किया तो इन्हें विश्वास नहीं हुआ। लगा जैसे कोई मजाक कर रहा है। जवाब मिला-`आज तक हमें किसी ने चाय-पानी का आमंत्रण नहीं दिया। पहले अपने परिवार वालों से तो पूछिए। हम बधाई मांगने के अलावा कभी किसी के घर नहीं गए।´ मुलाकात हुई तो सबसे पहली विनती यही कि नाम और पहचान गोपनीय रखी जाए, क्योंकि वरिष्ठ की आज्ञा का उल्लंघन मतलब एक रुपए का गर्म सिक्का माथे पर...। अपने हर सवाल पर इनसे मिला जवाब जैसे अपने पीछे कई और सवाल छोड़ता चला गया...
मां का पहला दूध भी नसीब नहीं...
`क्या नाम है आपका?´ जन्म से पहले शायद हमारे परिवार ने भी कई नाम सोचे होंगे, लेकिन हिजड़े पैदा हुए तो नाम तो दूर की बात है, मां पहला दूध दिए बिना ही अस्पताल में छोड़ गईं। नौ माह के गर्भकाल के दौरान सिर्फ मां ही नहीं, बल्कि पूरा परिवार उत्सुकता से नए मेहमान की प्रतीक्षा करता है। बच्चा अगर अंधा, गूंगा, बहरा, लंगड़ा या अन्य किसी शारीरिक अथवा मानसिक विकलांगता के साथ जन्म लेता है तो भी माता-पिता अपनी अंतिम सांस तक उसका पालन-पोषण करते हैं, लेकिन यही ममता और प्रेम तब क्यों बौना हो जाता है, जब बच्चा लैंगिक विकलांग पैदा होता है? 40 वर्ष की हो चुकीं शबनम कहती हैं कि हम जैसे बच्चों में से ज्यादातर को तो ये कहकर जन्म प्रमाण-पत्र ही नहीं मिलता कि ये न लड़का है, न लड़की, फिर प्रमाण-पत्र का क्या करेंगे। नाम कुछ भी लिख दीजिए। पहले जहां बसंती, रामप्यारी ऐसे नाम होते थे, वहीं अब माधुरी, ऐश्वर्या नए नाम रखने लगे हैं। मैंने अपने जैसे कई बच्चों की परवरिश की है। उनके नाम तो रखे ही हैं। उंगली पकड़कर चलना और बोलना भी सिखाया है।
न जन्म की खुशी, न मौत का गम...
जरा सोचिए, आप बीच रास्ते हों और आपको शौच जाना हो। सामने सार्वजनिक शौचालय दिखाई दे। एक-एक क्षण भारी हो रहा हो। सभी शौचालय खाली हैं, लेकिन इमरजेंसी के बावजूद आपको कोई शौचालय में ना घुसने दे। कितनी विचित्र स्थिति होगी न? लैंगिक विकलागों को ऐसी समस्या का सामना भी करना पड़ता है। महिलाओं के शौचालय में जाएं तो वे झगड़ा करती हैं और पुरुषों में वे जाएं कैसे। मानवाधिकारों के दंभ भरने वाली संस्थाएं इनके लिए कितना कुछ कर पाई हैं, ये भी किसी से çछपा नहीं है। ऐसे लैंगिक विकलांग बच्चे बहुत कम होते हैं, जिन्हें अपने माता-पिता के बारे में मालूम होता है। जन्म लेते ही ऐसे बच्चों को किसी और के भरोसे छोड़ दिया जाता है। बच्चे के जन्म पर बधाई गाने वाले ये लोग उम्रभर इस दुख में जीते हैं कि इनके जन्म पर क्यों किसी को खुशी नहीं हुई? बचपन से लेकर बुढ़ापे तक ये एक ही माहौल में जीते हैं। इनके जीवन का दर्द इनकी मृत्यु के बाद होने वाली रस्मों से भी साफ झलकता है। इनका अंतिम संस्कार आधी रात को होता है। उससे पहले शव को जूते-चप्पलों से पीट-पीट कर दुआ मांगी जाती है कि ऐसा जन्म फिर ना मिले।
वो बचपन की उमराव जान...
मेघना बाई की उम्र है लगभग 33 साल। मेघना बताती हैं कि बचपन में `उमराव जान´ फिल्म देखी तो लगा कि मेरी जिंदगी भी रेखा की तरह है। उम्र इतनी कम थी कि आदमी-औरत और किन्नर का अंतर भी नहीं मालूम था। नाचना-गाना सीखती थी तो फिल्म देखकर खुद को रेखा की जगह रखने लगी। बड़ी हुई तो यह सच मालूम हुआ कि वेश्या और किन्नर दोनों अलग-अलग होते हैं। मेघना कहती हैं कि किसी के घर किन्नर पैदा होता है तो मां-बाप उसे लावारिस छोड़ देते हैं। ज्यादातर लोग यही सोचते हैं कि ऐसे बच्चों को हम जबरदस्ती ले आते हैं। इस बात में कितनी सच्चाई है, ये हम ही जानते हैं। परिवार वाले खुद हमें बुलावा भेजते हैं, तभी बच्चा लाते हैं। सोचकर देखिए, अगर किसी का बेटा या बेटी कोई जबरदस्ती उठा लाए तो मां-बाप थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाते हैं। एक भी किस्सा ऐसा बता दीजिए, जब किसी किन्नर बच्चे को ले जाने संबंधी रिपोर्ट दर्ज करवाई गई हो। दरअसल ऐसे बच्चों को कोई अपने पास रखना ही नहीं चाहता। सिर्फ दिखावे के लिए ये ढोल पीटा जाता है कि किन्नर जबरदस्ती बच्चा ले गए।
हाशिए से बाहर की जिंदगी...
स्त्री-पुरुष में विभाजित समाज के पास इन दोनों से परे थर्डजेंडर के बारे में सोचने का वक्त ही नहीं है। शिक्षा हो या नौकरी...कहीं इन्हें अधिकार मिले भी हैं तो वे सिर्फ कागजों में सिमटकर रह गए हैं। समाज के साथ ये कदम मिलाकर चलें, ये किसी को मंजूर नहीं है। जैसे कोई शिशु अपनी मर्जी से शारीरिक अथवा मानसिक विकलांग पैदा नहीं होता, उसी तरह लैंगिक विकलांगता का दोष भी किसी का नहीं है। फिर इन्हें असामान्य या अपराधी क्यों समझा जाए? तालियां बजाने वाले हाथ अगर कलम थामकर पढ़ना चाहें, डॉक्टर, वकील या इंजीनियर बनना चाहें तो इनके स्वागत के लिए कोई तो हो। ऐसा संभव हो भी तो कैसे? स्त्री-पुरुषों का हमारा यह समाज शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों में इन्हें स्वीकार्यता नहीं देता और वोट बैंक की राजनीति में उलझे नेताओं के तो वायदा पत्रों तक में `थर्डजेंडर´ का जिक्र ही नहीं है।
देखी है वहशीपन की हद...
मोहिनी बताती हैं कि मेरे माता-पिता ने मुझे लावारिस नहीं छोड़ा। समाज से छिपाकर लड़की की तरह पाला, स्कूल में दाखिला करवाया। एक रोज मेरे सगे फूफा ने मुझे अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा। इसी दौरान वे जान गए कि मैं लैंगिक विकलांग हूं। पूरे गांव में मेरी सच्चाई बता दी। माता-पिता से मुझे किन्नरों को सौंपने की बात कही। मना किया तो पूरे परिवार को मारने की धमकियां मिलने लगी। मुझे किन्नर समूह में धकेल दिया गया।
आखिर कब बनेगा कारवां...
लैंगिक विकलांगों के प्रति समाज की सोच बदलने का लक्ष्य लेकर चल रही हैं मनीषा नारायण। लैंगिक विकलांग होने के बावजूद मनीषा ने खुद को सिर्फ नाच-गाने तक सीमित नहीं रखा। कलम उठाई और लिखना शुरू किया। हिंदी, अंग्रेजी, तमिल, तेलगू, मराठी और गुजराती भाषाओं की जानकार मनीषा एशिया की पहली लैंगिक विकलांग ब्लॉगर हैं। ग्रेजुएट मनीषा की उम्र 28 वर्ष है। मनीषा कहती हैं कि दिन में भी ऐसे ख्वाब देखने लगती हूं जब लैंगिक विकलांग संतान को भी माता-पिता अपना मानेंगे। फॉर्म में स्त्री/पुरुष के साथ तीसरा कॉलम थर्डजेंडर के लिए भी होगा। हमारे लिए भी अलग से सार्वजनिक शौचालय होंगे। ट्रेन, बसों के साथ हर क्षेत्र में हमारे लिए कुछ सीटें रिजर्व रखी जाएंगी। लैंगिक विकलांग बच्चे सभी के साथ स्कूल-कॉलेज में पढ़ेंगे। हमारे भी दोस्त होंगे। हमसे भी सभी प्यार करेंगे। हमें भी दैवीय शक्ति, अपराधी, असामान्य ना मानकर, एक इंसान माना जाएगा...। हर बार ऐसा ख्वाब भीड़ में किसी पुरुष की चिकोटी या `ओए हिजड़े...´ जैसी भद्दी टिप्पणी से टूटकर बिखर जाता है। इसके बावजूद मैं हार मानने वाली नहीं हूं। लैंगिक विकलांगों के हित के लिए मुझे राजनीति में आने की भी जरूरत नहीं है। कई किन्नर चुनाव लड़ते हैं, जीतते भी हैं, लेकिन मुझे याद नहीं कि किसी किन्नर नेता ने भी लैंगिक विकलांगों को इंसाफ दिलाने के लिए कुछ किया हो। मनीषा कहती हैं कि लोगों को शिकायत रहती है कि हम ट्रेनों, बसों में भीख मांगकर उन्हें परेशान करते हैं, मुंहमांगी बधाई ना मिलने पर कपड़े खोलने, अपशब्द बोलने की शिकायतें भी समाज को हमसे हैं। जरा सोचिए कि जिन्हें कभी यह बताया ही नहीं गया कि शर्म क्या होती है, वे शर्म करना कैसे जानेंगे? लैंगिक विकलांग बधाई और भीख नहीं मांगेंगे तो उनका पेट कैसे भरेगा, क्योंकि और किसी भी कार्य में समाज उनके प्रवेश को स्वीकार्यता ही नहीं देता। धीरे-धीरे ही सही, लेकिन जब दोहरा व्यवहार बंद होगा और हम भी समाज की मुख्यधारा में शामिल हो जाएंगे, तब समाज की ये शिकायतें दूर हो जाएंगी। एक बात और कहूंगी कि असली व नकली किन्नरों की पहचान के लिए कोई कदम उठाया जाए। बहुत-से समलैंगिक पुरुष किन्नरों के वेश में लोगों से पैसा मांगकर परेशान करते हैं। इनकी बद्तमीजी का दोष भी लैंगिक विकलांगों के सिर ही आता है। कई समाजों में हम जैसे लोगों को सम्मान प्राप्त है, लेकिन भारतीय समाज में अभी यह बदलाव आना बाकी है। मैं लैंगिक विकलांगों को सिर्फ कागजी अधिकार दिलाने के लिए नहीं लड़ रही हूं। कानूनी मान्यता के साथ-साथ जब तक समाज का नजरिया हमारे प्रति नहीं बदलेगा, तब तक हमारा संघर्ष जारी रहेगा।

5 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत विचारोत्तेजक और विचारनीय आलेख.

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

दिलीप भाई,आदरणीय लगा आपका लेखन....मनीषा दीदी ने आपको प्यार बोला है। थोथे, खोखले और दिखावा करने वाले लोगों ने भी अपनी जो भूमिका समाज में इस संदर्भ में प्रस्तुत करी है हमारा हिंदी ब्लाग जगत भी उससे अछूता नहीं है। मुझे ऐसे ढकोसलेबाजों से घिन आने लगी है। वंदना एक भयंकर दुर्घटना में बुरी तरह से जख्मी हो गयी थीं मैं उन्हें मिलने जा रहा हूं।
एक बार पुनः आपकी कोमल भावना को दिल से प्रणाम...

Anonymous said...

nice one bro... its show ur woke..sprit.......................

Anonymous said...

nice one.... bro

Unknown said...

Very Nice.. Apka ye article dil ko chu gaya.. Kash inke sath bhi justice ho.... Ye article un Politicians ko bhi padao jo ye sab nahi sochte....