Wednesday, January 14, 2009

मेरा आना और उनका जाना...


(पुण्यतिथि-15 जनवरी)
हर रोज न जाने हम कितने लोगों से मिलने की ख्वाहिश करते हैं, लेकिन मुलाकात सिर्फ उन्हीं से होती है, जहां दिल से पुकार होती है। पिछले साल लोहड़ी पर घर आने की कोई प्लानिंग नहीं थी। शायद कमल अंकल के अंतिम दर्शन नसीब में थे, जो बिना किसी तैयारी एकदम से श्रीगंगानगर आना हुआ। तीन दिन घर और दोस्तों के बीच कब गुजर गए, पता ही नहीं चला। अच्छी तरह याद है मंगलवार का वो दिन। शाम 8.30 बजे की बस थी। करीब 6.30 बजे एक दोस्त का फोन आया-`कमल अंकल नहीं रहे, तू अपनी रिजेर्वेशन कैंसिल करवा दे।´ पापा टिकट कैंसिल करवाने जाने लगे तो मैंने मना कर दिया। पापा के साथ `प्रताप केसरी´ पहुंचा। जाली के दरवाजे में से कमल अंकल को देखा तो कुछ सेकंड आंखें बंद कर उन्हें नमस्कार किया। श्रीगंगानगर से जयपुर पहुंचने में लगी वो पूरी रात आंखें भीगी रही। यूं लग रहा था जैसे बहुत कुछ खो दिया है। बीच-बीच में कई परिचितों के फोन आ रहे थे-`उनके अंतिम संस्कार के लिए तुझे रुकना चाहिए था...।´ ऐसी ही बातें सुनने को मिल रही थी। मैं नहीं रुका, क्योंकि मुझे उनकी ही कही एक बाद याद थी।
एक बार कमल अंकल ने किसी व्यक्ति के देहांत पर श्रद्धांजलि लिखकर कम्पोजिंग के लिए मुझे दी। मैंने मजाक किया-`हम इतने लोगों की श्रद्धांजलियां छापते हैं, हमारे लिए भी कोई श्रद्धांजलि लिखेगा क्या?´ बात काफी पुरानी है, लेकिन मुझे याद सिर्फ इसलिए है, क्योंकि मजाक में किए मेरे सवाल पर उनका जवाब काफी गहन था। जवाब था-`श्रद्धांजलि तो सिर्फ याद करने की औपचारिकता है। अंतिम संस्कार में शामिल भीड़ या अखबारों में छपी श्रद्धांजलियां व्यक्ति की अहमियत तय नहीं करती। खुशी और गम...मन में कितना है, ये बात अहम है, ना कि उसे व्यक्त करना।´
आज भी जब सीनियर्स मेरी हिंदी की तारीफ करते हुए पूछते हैं `किसने सिखाया´ तो कमल अंकल का चेहरा आंखों के सामने आ जाता है। हर व्यक्ति अपने परिवार के सबसे ’यादा करीब होता है, लेकिन इसके बाद वे मेरे काफी करीबी रहे। कुछ महीने तक रोज 12 घंटे से ज्यादा उनके साथ रहा। मेरा सौभाग्य है कि उनके सान्निध्य में मुझे इतना कुछ सीखने को मिला। `प्रताप केसरी´ में उन्होंने मेरे लिए कॉलम शुरू किया-`बात-पर-बात´। उन्होंने ही मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने मुझे किताबों से प्यार करना सिखाया। जयपुर आने के बाद भी कभी कुछ समझ नहीं आता तो हमेशा उन्हें ही फोन करता था। इतनी व्यस्तता के बावजूद वे हमेशा मेरी समस्या का समाधान करते थे। आज हिंदी का कोई शब्द गलत लिख बैठता हूं तो सुधार से पहले उनकी डांट की कमी महसूस होती है। छोटी-सी बात पर जब मैं ऑफिस छोड़कर चला गया तो कुछ दिन बाद गाड़ी लेकर वे खुद मुझे लेने आ गए, फिर प्यार से समझाया कि बाप-बेटा हमेशा के लिए नहीं रूठ सकते। जयपुर में छपी मेरी स्टोरीज उनको दिखाता तो शाबाशी में वो मेरा मुंह मीठा करवाते...। उनके साथ मेरी अनगिनत यादें जुड़ी हैं। उनके लिए मेरी शब्दांजलि कभी खत्म होने वाली नहीं है। उन्हें जाना था, लेकिन न जाने क्यूं दिल कहता है कि उन्होंने याद किया, इसीलिए मुझे उनके आखिरी दर्शन नसीब हुए। वो चले गए हैं सभी को छोड़कर, लेकिन मेरे लेखन और यादों में आज भी वो जिंदा हैं मेरे लिए।

7 comments:

somadri said...

कुछ लोग रास्ता दिखा कर चले जाते है

Unknown said...

सही है शव यात्रा में शामिल भीड़ व्यक्ति की अहमियत तय नही करती, कमल जी से दो बार मिली हूँ. बहुत जिंदादिल पर्सन थे वे. मेरा भी नमन उन्हें

Unknown said...

kisi bande ki mhanta ka bakhan karne se badiya h usse jude anubhav btaye jaye. aapke lekhan se pta hota h ki bande m dam tha

डॉ .अनुराग said...

इश्वर उन्हें शान्ति प्रदान करे .....

Unknown said...

हमारी किस्मत बुरी है की उन जैसे गुरु का मार्गदर्शन नही मिला1 यूँ तो आपसे कमल जी के बारे में सुनती रहती हूँ पर आपकी कलम से झलकी आपकी भावनाए आँखे गीली कर गयी

Unknown said...

भड़ास से आप तक पहुँचा. फोटो देख याद आया की इनसे तो मिल चुका हूँ. पंजाब में एक कालेज में मिलना हुआ फ़िर तो वही हमारी मुलाकात का स्थान बन गया. रोजी-रोटी हैदराबाद खींच लायी तो सभी से संपर्क टूट गया. आपके लेख से जान पाया की कमल नागपाल जी नही रहे. उनकी आत्मा की शान्ति की प्रार्थना करता हूँ

प्रदीप मानोरिया said...

भावपूर्ण वर्णन
प्रदीप मनोरिया
http://manoria.blogspot.com
http://kundkundkahan.blogspot.com