Thursday, September 18, 2008

दोस्ती का `आईफ्लू´


दोस्ती में आई लव यू हो तो बात हजम हो जाए, लेकिन दोस्ती में आईफ्लू...ये बात तो हाजमोला भी हजम ना कर सके! दरअसल ये अनोखा करिश्मा मेरे साथ हो गया। दो दिनों में कुछ ऐसा हुआ कि मैं किसी से नजर मिलाने के काबिल नहीं रहा। अरे भई...गलत मत समझिये। ऐसा कोई काला काम मैंने नहीं किया कि नजरों में गिर जाऊं। हुआ यूं कि एक दोस्त मंगलवार को मेरे पास जयपुर आया। करोड़पति पिता के इकलौते बेटे (वैसे अमीरी-गरीबी हमारी दोस्ती में कभी आड़े नहीं आई) ने जयपुर भ्रमण के बाद शॉपिंग का मन बनाया तो मैं भी उसके साथ हो लिया। जयपुरी जूतियां, कपड़े लेने के बाद जनाब को एक चश्मा लेने की सूझी। कुछ दुकानों पर उसे चश्मे दिखाए, लेकिन साहब किसी अच्छे ब्रांड का चश्मा खरीदना चाहते थे। बापू बाजार में अपने किसी परिचित से मिलने गए तो उन्हें अपनी इच्छा बताई। बस फिर क्या था। उन्होंने गाड़ी निकाली और हम पहुंच गए चश्मों के शोरूम में। दर्जनभर चश्मे देखने के बाद मित्र महोदय को बत्तीस सौ रुपए का एक चश्मा पसंद आया। वैसे तो वो चश्मा मुझे भी ठीक लगा, लेकिन दिल इतना भी उस पर नहीं आया कि बत्तीस सौ रुपए खर्च किए जाएं। दोस्त को समझाया कि एक चश्मे के लिए इतने रुपए खर्च क्यों करते हो? जनाब बोले, पापा ने शॉपिंग के लिए पैसे दिए हैं, कहां खर्च करूं। बड़ी विचित्र स्थिति थी- रुपए हैं, लेकिन खर्च कहां किए जाएं! (दुखद है, लेकिन सच है कि किसी के पास जरूरी सामान खरीदने के लिए कुछ रुपए नहीं हैं तो किसी के पास इतने रुपए हैं कि कहां खर्च किए जाएं, समझ नहीं आता। दो लाइनें याद आ गई...घर जाकर बहुत रोये मां-बाप अकेले में, सस्ता नहीं था कोई खिलौना उस मेले में।)

दोस्त का जवाब सुनकर मैं बोला-नहीं खर्च हो रहे तो सेविंग कर लो। जवाब मिला-अकाउंट में खूब रुपए हैं। ...खैर उन्होंने वो चश्मा खरीद लिया। जाने लगे तो एक चश्मा हमारी आंखों पर भी चढ़ा दिया। मैंने बोला कि मैं कभी चश्मा पहनता ही नहीं। दोस्त बोला-अगले महीने तेरा बर्थडे है, बस उसी का तोहफा है। दोस्त से तोहफा लेने में कोई हर्ज नहीं पर इतना महंगा...! मैंने बोला-मैं चश्मा पहनता ही नहीं तो फिर मेरे किस काम का। बच्चे की तरह जिद करके उसने वो चश्मा भी पैक करवा लिया और बोला-देखना एक हफ्ते में तू इसे जरूर पहनेगा और सभी को खूब पसंद भी आएगा। चश्मा लिया और घर आ गए। अगली सुबह दोस्त रवाना हो गया। मैंने चश्मा लगाया और बार-बार आइने में खुद को निहारा। सच कहूं तो खुद की शक्ल से ’यादा मैं उस महंगे चश्मे को ही देखता रहा था। थोड़ी देर बाद चश्मे को वापस पैक किया और संभालकर रख दिया। सुबह उठा तो आंखों में जबरदस्त खुजली होने लगी। आई ड्रॉप्स डाली, लेकिन कुछ असर नहीं हुआ। दूसरे दिन हालत ज्यादा बिगड़ी तो डॉक्टर को दिखाया। स्लिप पर कुछ दवाइयां लिखकर हिदायत मिली-आईफ्लू की शुरुआत है। आंखों पर चश्मा लगाइए, वरना दूसरों को भी नुकसान हो सकता है। स्लिप लेकर घर आया तो अपने दोस्त की बात याद आई कि एक हफ्ते में चश्मा मेरी आंखों पर होगा। कहते हैं कि दिन में एक बार हमारी जुबान पर `मां सरस्वती´ विराजमान होती हैं और तब कहे शब्द सच हो जाते हैं। शायद उस दोस्त के लिए वो वक्त तभी था। जो भी हो, दोस्ती के आईफ्लू ने आंखों पर चश्मा लगवा ही दिया...!

4 comments:

Udan Tashtari said...

दिन में एक बार हमारी जुबान पर `मां सरस्वती´ विराजमान होती हैं ...सच है!!! नियमित लिखिये.

Advocate Rashmi saurana said...

dosti ka aai-flew ha ha ha......... bhut sahi.
aap apna word verification hata le taki humko tipni dene me aasani ho.

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

भाई मेरे,
ऐसे बच्चे या बड़े जो भी हैं,उनको बस दिशा बदलवाने की जरुरत है,समाज को आवश्यकता नेक काम करने वालों की है और वो जगह-जगह पर हैं भी मगर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो यह तक नहीं समझ पाते कि वे पैसे खर्च करें तो कहाँ करें !! तो हमारे पास यह विजन हो और साथ ही एक मंच हो,जहाँ गरीबों के लिए वास्तविक विकास कार्य किए जाते हों,और ऐसे मंचों से जुड़ने के लिए इन लोगों को प्रोत्साहित किया जाए तो बात अवश्य बन सकती है.... डर हमारे आस-पास बदिया काम होता हो तो उससे कम या बेशी मगर लोग जुड़ते तो अवश्य ही हैं .... काश कि हम एसा काम कर पायें !!

ज़ाकिर हुसैन said...

बहुत अच्छा लिखा आपने.
कुछ के पास ज़रूरी सामान खरीदने के लिए भी पैसे नहीं होते और कुछ ये नहीं समझ पाते कि पैसों को आखिर कहाँ खर्च किया जाए ........