
('प्रताप केसरी' के संस्थापक-संपादक स्व.कमल नागपाल जी की आज पुण्यतिथि है)
उन्हें गए कितने दिन हुए...एक और बरस बीत गया। एक से दो, दो से तीन, तीन से चार...इसी तरह बरस बीतते जाएंगे और हम हमेशा यही कहेंगे कि इतने साल हो गए उन्हें गुजरे, लेकिन यूं लगता है जैसे कल तक वे हमारे साथ थे। तारीखें बढ़ती रहेंगी पर दिन और रात तो वही रहेंगे। सभी के लिए नहीं तो कम-से-कम मुझ जैसों के लिए तो ऐसा होगा ही, जिन्हें लंबे समय तक उनके सान्नध्य का सौभाग्य मिला है। स्व. कमल नागपाल जी को श्रद्धांजलि के लिए कोई लेख या प्रशंसा-पत्र लिखना तो बेमानी ही होगा। उनके साथ बिताए लंबे समय की यादों ने मेरे मन की परतों के साथ जैसे एक किताब का रूप ले लिया है। उन्हीं परतों में से कुछ खोल रहा हूं।
'दीपू, जल्दी काम निपटा लो। तुम्हें मेरे साथ चलना है।' उनका ये मैसेज मिलते ही मेरी उंगलियां दोगुनी तेजी से की-बोर्ड पर चलने लगती थी। स्वभाव से थोड़ा घुमक्कड़ हूं, लेकिन इसके अलावा भी कारण बहुत-से थे। उनके साथ हर बार कुछ नया सीखने का मौका मिलना और पूरे रास्ते गजलों का आनंद आदि के बारे में सोचकर ही मैं एनर्जी से भर जाता था।
कार को साफ करने के बाद ऑफिस बॉय उसमें पानी की बोतल, टिफिन के साथ जरूरी सामान रखता, तब तक अंकल डायरी, पेन और दो-तीन लेटर पैड लेकर आ जाते। लेटर-पैड एक से ज्यादा इसलिए होते थे, क्योंकि एक-डेढ़ घंटे के सफर में न जाने कितनी खबरें उनके दिमाग में कैद हो जाती थीं। कार में रखे सामान पर नजर डालते हुए वे पूछते-'सब-कुछ आ गया?' ऑफिस बॉय हां में सिर हिलाता तो वे कहते-'सबसे जरूरी चीज नहीं आई। 'प्रताप केसरी' कहां है? टिफिन रह जाए, लेकिन अखबार नहीं रहने चाहिए।'
ऑफिस बॉय दौड़कर जाता और अखबार का बंडल कार की पिछली सीट पर रख देता। ऊपर वाले का नाम लेकर हम रवाना होते। श्रीगंगानगर क्रॉस होते ही वे कभी भी मुझसे पूछ लेते-'हम कहां पहुंचे हैं?' मैं हड़बड़ाया हुआ-सा इधर-उधर ताकने लगता। कार के स्टीरियो की आवाज कम करते हुए थोड़ा डांटकर वे कहते-'गजलों में इतने गुम मत हुआ करो कि कहीं और ध्यान ही ना रहे। पत्रकार की तरह दो आंखें अंदर और दो आंखें बाहर रखा करो...।'
वे कुछ और कहें, इससे पहले तीन-चार आदमी उनकी गाड़ी के पास आते। सभी को वे 'प्रताप केसरी' की एक-एक कॉपी देते। मैं बड़ी तल्लीनता से देखता। वे अपनी बात आगे बढ़ाते-'पत्रकार चार आंखें नहीं रखेगा तो अखबार किसी काम का नहीं रहेगा। इन गांव वालों के पास अखबार काफी देरी से पहुंचता है या फिर पहुंचता ही नहीं। कुछ गरीबी के कारण खरीद नहीं पाते। शुरुआत में एक-दो बार इनके लिए अखबार लाया तो ये हमेशा इंतजार करने लगे। प्रेस की गाड़ी देखते ही दुकानों-घरों से बाहर निकल गाड़ी के नजदीक आ जाते हैं।'
वे मुस्कुराकर बोले-'इनके प्यार ने संपादक के साथ मुझे हॉकर भी बना दिया।'
अचानक मेरे मुंह से निकल गया-'कार वाले हॉकर...।'
वे बोले-'कार तो बाद में आई। हॉकर तो मैं पहले-से हूं।'
हम दोनों जोर-से ठहाका लगाते हैं। बिलकुल ऐसे, जैसे दो हमउम्र दोस्त हों। इस हंसी और उनकी सादगी में तीस-पैंतीस साल का अंतर कहीं गुम हो जाता। उस ठहाके की आवाज आज भी मेरे भीतर कहीं गूंजती है।
...वी ऑलवेज मिस यूं अंकल।